मंगलवार, 30 जून 2015

झुकना अब मुझे भी गंवारा नही !! ... (ग़ज़ल)

मै निकला उस कश्ती पर हो सवार
नसीब में जिसके कोई किनारा नहीं !!

लड़ता जाऊँगा वक़्त की लहरो से
झुकना अब मुझे भी गंवारा नही !!

करले अब चाहे जितने सितम ऐ वक़्त,
तेरी अकड़ के आगे मुझे झुकजाना नही !!

माना के तू बहुत महान इस दुनिया में,
तुझ से मानू हार मेरे लिए आसान नही !!

आजमा ले तूफ़ान ऐ जिंदगी ताकत अपनी
अब डर कैसा “धर्म” जब कोई सहारा नही !!

डी. के. निवातियाँ ___@@@

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शेर अर्ज है।

1.गिरे जो साख से पत्ते तो मुरझाने लगे।
अपनों से जुदा जीना कुछ ऐसा ही तो है।

2.उसने लुटा दी शौक से अस्मत ऐसा कहते हैं सभी।
कभी अपने बच्चों को भूखा तड़पते देखो तो सही।

3.बेचैन था कुछ इस तरह की क्या खो दिया मैंने।
तुम्हें देखते ही इक झलक सब मिल गया जैसे।

4.नदी प्यासी रही ताउम्र,बेवफा पानी भी नहीं।
हसरतों को लुटा देना ही तो सच्ची मोहब्बत है।

5.कूड़े में फेंक दिए पुराने खिलौने,नए लाने की चाह में।
सोचो एक गरीब का बच्चा तो माटी से खेलकर खुश है।

वैभव”विशेष”

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जी चाहता सब दान कर दूँ

नजर दान कर दूँ
जिगर दान कर दूँ
ह्रिदय फेफङा किडनी
सब अंग दान कर दूँ ,

दान करने में मेरा कुछ
जाता नहीं
उल्टा नाम प्रशन्सा पाता यही
अंगो का देख भाल का जीमा
चिकित्सालय उठाता
फिर यह पुण्य कार्य मुझे क्यों नहीं भाता,

मन सोचता मस्तिस्क तर्क करता
आज का हलात देख
अपने आप पर दंश भरता,

नजर देदोगे नजरियां कैसे दोगे
पाता नहीं इन से वह क्या-क्या देखेगा
उल्टी-सुल्टी दृश्यों से इसे सेकेगा ,

जिगर दे दोगे वो जान कैसे दोगे
अच्छे-बुरे का पहचान कैसे दोगे ,

तुम्हारा ह्रिदय दूसरे के शरीर धड़केगा
कही यह धड़कन किसी का धड़कन तो नहीं रोकेगा ,

तुम्हारी फेफङो से वह साँस लेगा
इन्ही सांसो से किसी और का साँस तो न रोकेगा ,

इन सब तर्को से
मै झल्ला जाता और अपने आप से कहता
“कुछ के चलते सभी को दोशी क्यों ठहराए
लोगो के चकर में अपनी मनुषता (मानवता)
क्यों भूल जाए”।

नजर दान कर दूँ
जिगर दान कर दूँ
ह्रिदय फेफङा किडनी
सब अंग दान कर दूँ ,

जीवन में संचय नरेन्द्र
ज्ञान धन परिश्रम
दान कर दूँ।

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विदाई समारोह।

माना की ये दौर बदलते जायेंगे।
आप जायेंगे तो कोई और आयेंगे।
मगर आपकी कमी इस दिल में हमेशा रहेगी।
सच कहते हैं हम आपको इक पल न भूल पाएंगे।
मुश्किलों में जो साथ दिया याद रहेगा।
गिरते हुए को जो हाथ दिया याद रहेगा।
आपकी जगह जो भी आये वो आप जैसा ही हो।
हम बस ये ही चाहेंगे।
सच कहते हैं हम आपको इक पल न भूल पाएंगे।

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पत्थर न बन जाना (गजल)

हम दिल की बाते सारी कैसे वया करे ।
तुम गैर पे हो फ़िदा चुप कैसे रहा करे ।

तेरी तलब तो दिल में लड़कपन से है ।
पर दोस्तों से झूठी प्यार कैसे जल्फा कर ।

अजनबी बन रहते है तुम्हारे दिल के पास ।
हमदर्द मेरे बताओ तुमबिन कैसे गुजारा करे ।

तुम न समझ लो बच्चो की कठपुतली मुझे ।
तेरी हर नादानियाँ को हम कैसे अनदेखा करे ।

तुमबिन ज़िन्दगी मेरी रेगिस्तान सी लगती है ।
तन्हाई की धुप से सनम कैसे बचा करे ।

सब लूट के कहती हो भूल जाओ मुझे ।
दिल मानता नहीं गैर पे कैसे मरा करे ।

पत्थर न बन जाना देना जवाब खत की ।
ऐसे ही तुम्हे रानी बनाकर कैसे रखा करे ।

“दुष्यंत पटेल”

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सोमवार, 29 जून 2015

अछूत

छुत-अछूत की
अजब-गजब विडम्बना
किस ने इसे बनाए
कार्य उसका शुभ
वह कैसे अशुभ हो जाए।

बिना उसके लोग तरे नाही
जीवन में जव भर ससरे नाही
बिन उसके न हो शुद्धि
फिर वह कैसे अशुद्ध हो जाए।

मुख्य धारा से वे कटे रहे
स्वाधीनता के लिए डटे रहे
उन पर कोई शासन न करे
अछूत बन वह पड़े रहे।

माना वे गंदे रहते
जीवन में ठंढे रहते
उनके बच्चे नंगे रहते
उसके लिए सिर्फ उसे ही
क्यों दोशी ठहराए।

छुत-अछूत की
अजब-गजब विडम्बना
किस ने इसे बनाए
नरेन्द्र तुम करो प्रयाश
दो इसे मिटाए।

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साईकल

साईकल की कहानी
है सदियों पुरानी
किसी ने इसकी पहिया बनाई
किसी ने ब्रेक बनाया
अनेक लोगो ने मिल इसे
सवारा-सजाया ,

इसकी उपयोगिता है अनेक
आमिर गरीब सभी के यहाँ
इसकी है पैठ
इसे न चाहिए लेन न ट्रेक
इसकी इरादा सादा है नेक ,

मानवता से है इसकी नाता
इसके नाम का यस
किसी को नहीं जाता ,

यह न है किसी देवी देवता की सवाड़ी
न है किसी कम्पनी विशेष की गाड़ी
यह वहाँ भी जाती है
जहाँ से मानवता आती है
साईकल की कहानी है
सदियों पुरानी।

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तरसता बूढा बाप ! !

    1. उम्र भर जिस बेटे के दरस को
      तरसता रहा बूढा बाप !
      उसके मरने के बाद तर्पण करने
      दानवीर बना आज लाल !!

      नजरे गड़ाकर बैठा रहता था चौबारे में
      जिसके इन्तजार में बूढा बाप !
      उसकी अस्थियो की पूजा करता देखा
      वो बदनसीब नौजवान !!

      ढाँपे रक्खा बदन को मात्र एक चादर से
      ताउम्र फटेहाल रहा बूढा बाप !
      बेटे ने उसकी याद में आयोजन कराया
      तस्वीर पर चढ़े चंदन माल !!

      जीवन भर पड़ा रहा अनाथ आश्रम में
      जो बिखर बूढा बाप !
      आज बेटे ने हवेली में अपनी लगायी
      स्वर्ण जड़ित चित्र लाजबाब !!

      दो जून की रोटी को घर के सुकून में
      तरसता रहा बूढा बाप !
      बेटे ने मोहल्ले में उसके नामपर आज
      लगाया लंगर बे हिसाब !!

      भटकती आत्मा से बिलखता देखता है
      आज भो वो बूढा बाप !
      जीवन में सब कुछ मिले तुझको
      एक मांगे मिले हजार !!

      दिल से निकलता उसके, देता आशीष
      आज भी रोता बूढा बाप !
      न तरसे तू कभी जैसे मै भटका हूँ
      जीवन भर लाचार !!
      !
      !
      !
      डी. के निवातियाँ __@@@

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।। गज़ल।।मजबूर है कोई।।

।।गजल।। मजबूर है कोई ।।

तेरी खुशियो के लिये ही दूर है कोई ।।
ये दोस्त तेरी दोस्ती में मजबूर है कोई ।।

और भी वजह थी तुमसे दूर जाने की ।।
पर तेरी बेखुदी में मगरूर कोई है ।।

क़द्र करता हूँ तुम्हारी शौक की हमदम ।।
बस तुम्हारी गम में खुद चूर है कोई ।।

सबूत माग सकते हो तुम मेरी बेगुनाही का ।।
पर यकीनन तेरे प्यार में बेकसूर है कोई ।।

दर्द है या है तेरे इंतकाम का मंजर ।।
या तेरी बेवफाई का नया दस्तूर है कोई ।।

……… R.K.M

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Read Complete Poem/Kavya Here ।। गज़ल।।मजबूर है कोई।।

क्यूँ बेखबर हैं।

पी ली है आज मैंने मुझे होश है नहीं।
मगर जो होश में हैं वो क्यूँ बेखबर हैं?

तमाम कोशिशें भी गर्म शीशे सी पिघली
राह में ज़िन्दगी भटकी क्यूँ दरबदर है?

एहसासों को मसल के कई ख्वाब सजे
आशियाने के ठिकाने भी क्यूँ बेघर हैं?

थी मेरी भी हस्ती महफूज रखने की
दिल की खातिर दुआ क्यूँ बेअसर है?

कुछ तो थी शख्शियत मेरी चाहत की
जिन नज़रों ने दी ठोकर क्यूँ बे-सबर हैं?

इम्तिहानों से गुजर के भी ईमान कायम है
शख्स वो उतना ही परेशाँ क्यूँ मगर है?

दीवारों पे तो लिखे हैं नाम,दिल ख़ाली है
ऐसे इश्क से तो अच्छा,तन्हा हम अगर हैं।

वैभव”विशेष”

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Read Complete Poem/Kavya Here क्यूँ बेखबर हैं।

चल चला चल रे साथी

चल चला चल
चल पड़ रे साथी
छोड़ यहाँ का साथ
दूर कहीं चल पड़ रे साथी।

आँसुओ का सैलाब
बारिश की बूंदों संग बह जाएगा
बादल आखिरी बार बरसेगा क्या?

कैसा ये दर्द है
न कोई जान पाएगा।
समाया है जो कब से
निचोड़ डाल वो आखिरी कतरा भी दर्द का
निशब्द को शब्द मैं दूँगा।

चल चला चल
चल पड़ रे साथी
छोड़ यहाँ का साथ
दूर कहीं चल पड़ रे साथी।

कहाँ ? किधर?
ले चला है मुझको,
फरेब की दुनिया
क्या कोई जगह
अब भी है बाकि!!!

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सुना-सुना है अब गाँव

कोयल हो गई गुम
कौआ नहीं करता काँव
आँगन में उदासी छाई
सुना-सुना है अब गाँव

सुख गई है नदी
टूटी पड़ी है नाव
पनघट भी वीरान है
नहीं कुदरत की ताव

न शाम सुहानी है
उजड़ गया अमवा गाँव
राहगीर ढूंढ़ते फिरते है
बरगद-पीपल की छाव

न बरगद की झूला
न नीम की छाव
रंग बसंत की यहाँ
नहीं पड़ता अब पड़ाव

बगीचे में गुलजार नहीं
न पंछियो की शोर गुल
काली घटा सावन बरखा
गाँव की राह गई भुल

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बात तो फिर भी होती है।

माना की तुम हो दूर बहुत मुलाक़ात तो फिर भी होती है।
तन्हा-तन्हा सी रातों में कुछ बात तो फिर भी होती है।

चाँद सितारे और गुलशन बस एक शिकायत करते हैं
समझा लो मन,अश्कों की बरसात तो फिर भी होती है।

चाहत के नुकीले नस्तर से मैंने संगे दिल को तराशा था
पत्थर बन कर ही साथ सही वो साथ तो फिर भी होती है।

समझा खुद को माहिर मैंने शतरंज बिछा दी चाहत की।
मुमकिन नहीं जीतूँ हर बाजी,मात तो फिर भी होती है।

मैं नहीं हूँ कोई जादूगर बस इक सच्चा दिल है सीने में
भूल कर भी याद मैं आऊँ ये करामात तो फिर भी होती है।

वैभव”विशेष”

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रविवार, 28 जून 2015

भला बुरा

कौन भला है
कौन बुरा
समय की है
यह बात
नीति रीती बदल जाती
देख लोगो की
औकात।

फूल भली है
शूल बुरी
समय की है
यह ताक
एक समय
नागफनी भी
आती है काज।

लोग भले हैं
जाती बुरी
सोच की है यह विसात
बिन जिनके लोग
पाख न हो
फिर क्यों करे
ए ऐसी बात।

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।।गज़ल।। कह न पाया हूँ।।

।।गज़ल।।कह न पाया हू।।

तेरी यादो से हटकर मैं कभी भी रह न पाया हू।।
बड़ी तकलीफ है मुझको हकीकत कह न पाया हूँ ।।

हर बार रुक गयी है लबो तक बात आकर के ।।
तेरी दूरिओ के गम कभी मैं सह न पाया हूँ ।।

न मौका था न मुद्दत थी न तेरी रहनुमायी थी।।
बनकर आँख का आँशु तेरे मैं ढह न पाया हूँ।।

न तुमने न कहा मुझसे न मैं भी हा समझ पाया ।।
दरिया पास था मेरे मगर मै बह न पाया हूँ ।।

खुले है दिल के दरवाजे यकीनन आप के खातिर।।
क्योकि तुझे भूलने की कोई वजह न पाया हूँ ।।

R.K.M

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Read Complete Poem/Kavya Here ।।गज़ल।। कह न पाया हूँ।।

जुदाई (गाना)

यह लम्हे,
कब यादे,
बनती है,
न पता हमे।

कुछ ऐसा जो,
हमे मिलता हो,
इनसे है वो,
सारे दर्द।

खुश हो या हो,
घम की दरिया,
इनसे है जुडी,
ये कहानीया।

जुदाई का जो,
है ये पल, हा,
मिलती है उससे,
तनहाईया।

कुछ भी सोचो,
कुछ भी चाहो,
इनसे सारा,
घम लुटा लो।

ये दर्द है,
बहुत भारी,
तन्हा बैठे हो,
मिले न सहारा कोई।

ये समा है,
कुछ अनोखा,
हर तरफ मिले,
सिर्फ धोखा।

कबसे किस्मत,
है लापरवाह,
मगर हर दर्द की,
है एक दवा।

दुआए मान्गो,
खुशीया बाटो,
बन जाओ तुम,
सुख का सागर।

घम तो ऐसे मिटता नही,
तुमसे मिली है ये दुहाई,
अगर मै चाहू खुशी छोटी,
मिलती है तुझसे घम की नदी।

जुदाईया…. है हर दर्द का कारण,
दुख होता है,
जब मिले इसका एक उदाहरण।

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हाये ए औरत

हाये ए औरत
उठे तो शिखर को जाए
गिरे तो गर्त में पहुचाए
अच्छे-अच्छो को धूल चटाए
इसके आगे कोई टिक न पाए
हाये ए औरत।

कार्य सिद्धि के लिए ए नीति अपनाए
इस की नीति कोई समझ न पाए
गिरते को ए दे सहारा
यह है बहती सरीता का किनारा
सभी लोग इसके तट पर आते
अपनी भूख-प्यास मिटाते
फिर क्यों है यह बेसहारा
हाये ए औरत।

ए अपनी जीवन अपनों पर की अर्पण
इसकी हर अवस्था दूसरे को है समर्पण
इसके योग्यदान से चले घर-संसार
बिना इसके सब बेकार
फिर क्यों है यह लचार
हये ए औरत।

इसके बिना सब शून्य
सुंदरता सदभावना शूरता वीरता
दृढ़ता सभी गुण है इसके अंदर
सृष्ट्री चलाने का यह है जंतर (जंत्र)
इसके बिना काम न आएगा कोई मंतर (मन्त्र)
फिर क्यों यह फसी हुई है बिच समंदर
हये ए औरत।

मर्द के कामयाबी के पिछे है इसका हाथ
सभी कामो में देती साथ
फिर क्यों यह चाहती किसी का सहारा
बहुत से लोग इससे करते किनारा
तुझे अपने आप पर क्यों नहीं विश्वास
तू अपनी शक्ति पहचान
कर जगत कल्याण
हये ए औरत।

औरत तु अब जाग
ना कर किसी का आश
सारा शक्ती हैं तेरे पास
न कर तू किसी से स्पर्धा
अपनी गुण का तु कर विकाश
नरेन्द्र तुम से करता है ए आश
हये ए औरत।

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चमचागीरी-110

जहाँ देखो चमचागीरी की गन्दी पॉलिटिक्स है;
कियूं कि यही बोर्नबीटा है यही हॉर्लिक्स है.

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चमचागीरी-109

आजकल हर नौकरी में स्पेशलिस्ट होना जरूरी है;
काम करो या चमचागीरी एक्सपर्ट होना जरूरी है.

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चमचागीरी-108

इस के स्वाद से ही दुनिया बर्बाद है,चाहे डिल है चाहे इलाहाबाद है;
चमचागीरी के सलाद और चमचागीरी की चटनी में ही स्वाद है.

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चमचागीरी-107

चमचे को चमचा कहो चमचा जाता रूठ;
धीरे-धीरे जान ले चमचागीरी की लूट.

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चमचागीरी-106

सिर्फ क्वालिटी में उन्नीस बीस होते हैं;
मगर सारे चमचे चार सौ बीस होते हैं.

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चमचागीरी-105

हम चमचों के बराबर रुतबा या पैसा पा नहीं सकते हैं;
कियूं कि हम चमचागीरी के चने चबा नहीं सकते हैं.

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चमचागीरी-104

वोटिंग की उम्र की सीमा १८ साल
शादी की उम्र की सीमा २१ साल
दारू पीने की उम्र की सीमा २५ साल
चमचागीरी की उम्र की सीमा कोई नहीं.

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चमचागीरी-103

पहले गुस्सा आता था अब तो आदत सी हो गयी है;
चमचे तो डिप्लोमा रखते हैं हमारी तो चमचागीरी में पी एच डी हो गयी है.

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चमचागीरी-102

हमें जिंदगी भर मेहनत करने पे मलाल है;
चमचों को जो मिला है वह चमचागीरी का कमाल है.

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चमचागीरी-101

हर नौकरी में चमचों का एक ही स्टंट होता है;
काम को वोल्टेज नहीं होता चमचागीरी का करेंट होता है.

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चमचागीर-100

नौकरी में चमचे हमेशा से फायदा उठाते रहे हैं;
कियूं कि वह चमचागीरी का चन्दन लगाते रहे हैं.

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लङ्की है तु

लङकी है तु पाप नही
जन्म लेन तेरा कोइ अभिशाप नही,

तु क्यो अपने को हिन समझे
अपने आप को छिन समझे
तुझ से है यह सन्सार
लङकी है तु पाप नही
जन्म लेना तेरा कोइ अभिशाप नही

तु सभी रिस्तो का जङ है
फिर तुझे क्या डर है
तु ही प्रिया तु ही पत्नी
तु बहन है तु ही जननी
लङकी है तु पाप नही
जन्म लेना तेरा कोइ अभिशाप नही

तु वट वृक्ष के समान है
तु बहुत महान है
तु ही पर्व त्योहर है
तुझ बिन यह जगत श्मशान के समान है
लङकी है तु पाप नही
जन्म लेन तेर कोइ अभिशाप नही

नर हो या इन्द्र लङकी के बिना सब छिन
लङकी और लकङी से मानवता का जीवन मरन का साथ है
तुझ बिन मानव का जीवन अभिशाप है
लङकी है तु पाप नही
जन्म लेना तेरा कोइ अभिशाप नही/

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अर्ज किय है

अर्ज किया है फर्ज न भुलो
नमक और दुध का कर्ज न भुलो
भुलना है तो मर्ज को भुलो
अर्ज किया है फर्ज न भुलो

माता-पिता का प्रेम न भुलो
भुलना है तो राग और दुवेश को भुलो
अर्ज किया है फर्ज न भुलो

कर्त्वय और अधिकर न भुलो
भुलना है तो अहम और अभिमन को भुलो
अर्ज किया है फर्ज न भुलो

आसमा और फर्स न भुलो
भुलना है तो गर्त को भुलो
अर्ज किया है फर्ज न भुलो

सखा सम्बन्धि और समाज न भुलो
भुलना है तो सन्ताप को भुलो
अर्ज किया है फर्ज न भुलो

सत्यकर्म और सन्स्कर न भुलो
भुलना है तो कुमार्ग को भुलो
अर्ज किया है फर्ज न भुलो

सत्यसन्गत और सन्त न भुलो
भुलना है तो लोभ और मोह को भुलो
अर्ज किया है फर्ज न भुलो

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शनिवार, 27 जून 2015

।। इंतजार मिला तेरा।।

।।ईंतजार मिला तेरा ।।

प्यार में एक गम भरा इंतजार मिला तेरा ।।
टूट गया दिल जब दीदार मिला तेरा ।।

बेवफाई की तो दहलीज पार कर दी तुमने ।।
हर वक्त पर सिर्फ इनकार मिला तेरा ।।

फिर भी कोशिशो से दिल हार नही माना ।।
जान थी पर रूह ही बेजार मिला तेरा ।।

उस दिन आयी थी जब तुम गैर के शाये में ।।

तब ही हकीकत में निखार मिला तेरा ।।

बाकी मैंनेँ भी दुआएँ मांगी थी तेरे खुशियो की ।।
पर बद्दुआओ का असर हर बार मिला तेरा ।।

R K M

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कोई तुम से सीखे...... (प्रेम कविता)

    1. आँखों में बसाकर नजरे चुराना,
      कोई तुम से सीखे !!

      दिल में बैठाकर दूरिया बनाना,
      कोई तुम से सीखे !!

      लबो पे नाम मुस्कान से छुपाना,
      कोई तुम से सीखे !!

      मोहब्बत के ये राज छुपाना
      कोई तुम से सीखे !!

      दिल के अरमान नफरत से जताना
      कोई तुम से सीखे !!

      छोटी से शरारत में प्यार दिखाना,
      कोई तुम से सीखे !!

      मिलान के सपने दिल में छुपाना,
      कोई तुम से सीखे !!

      मिलन हुआ तो नजरे चुराना,
      कोई तुम से सीखे !!

      दिल की तड़प को हंसकर छुपाना,
      कोई तुम से सीखे !!

      बड़ी मासूमियत से ये सारी बाते
      चेहरे पे छलकती अदा से छिपाना
      कोई तुम से सीखे !!

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शुक्रवार, 26 जून 2015

दुनिया की नजर............ ( जिंदगी पर कविता )

    1. फर्क देखिये दुनिया की नजर का
      किस किस नज्ररिये से देखते लोग !
      गरीब के घर हंस को बगुला कहे
      अमीर के कौवे को हंस बताते लोग !!

      गरीबी न ढक सके तन को
      ये उसकी मज़बूरी बताते लोग !
      अमीर जब घूमे अर्धनग्न
      सब देख हर्ष से फैशन बताते लोग !!

      आम आदमी जंगल में खाए
      यह उसकी दिनचर्या बताते लोग !
      अमीर अगर करे वही काम,
      उसे पिकनिक कहकर बुलाते लोग !!

      गरीब जब फूल पत्तिया खाए,
      दुनिया में उसे जंगली बताते लोग !
      अमीर दोहराता जब उसको,
      विलायती सलाद का नाम देते लोग !!

      साधारण जन की चुप्पी को,
      यहां पागलपन कह बुलाते लोग !
      दौलत वालो की ये आदत,
      शालीनता की पहचान जताते लोग !!
      !
      !
      !
      डी. के. निवातियाँ ________@@@

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नशा मुक्त हो विश्व।

आज 26 जून विश्व नशा विरोधी दिवस पर
नशा के विरोध में लिखी मेरी कविता।

बदलता दौर है बदलो मगर इतना न बदलो तुम।
शर्म से नज़रें हों बोझिल अभी है वक़्त सम्हलो तुम।

शौक में फूंक दी साँसे छल्लों की नुमाइश में।
धुएं में कैद है धड़कन,मरे जीने की ख्वाहिश में।

ज़िन्दगी में अदाओं के बेहतर और भी सलीके हैं।
नशे के बिना भी हैं खुशियाँ फिर क्यूँ गम लो तुम?

बदलता दौर है बदलो मगर इतना न बदलो तुम।
शर्म से नज़रें हों बोझिल अभी है वक़्त सम्हलो तुम।

माँ-बाप को है गुमाँ की बेटा आसमाँ पे जाएगा।
सच है,पर जरूरी नहीं की जमीं पे लौट आएगा।

नशा लेकर है आता साथ में बस मौत का पैगाम
वक़्त की रफ़्तार तेज है जरा ठहरो,दम लो तुम।

बदलता दौर है बदलो मगर इतना न बदलो तुम।
शर्म से नज़रें हों बोझिल अभी है वक़्त सम्हलो तुम।

पीकर जाम का प्याला वो खुद का नाम भुला बैठे।
पत्नी और बच्चों की गुजरी तन्हा शाम भुला बैठे।

पत्नी के अश्क,चोटों के निशाँ दर्द को कर रहे बयाँ।
होश में रह कर पहुँचो घर जरा इतना तो कम लो तुम।

बदलता दौर है बदलो मगर इतना न बदलो तुम।
शर्म से नज़रें हों बोझिल अभी है वक़्त सम्हलो तुम।

आईने में देखकर गले हुए गाल ,पछताने से क्या होगा?
जो लौटकर आने में बहुत देर हुई तो आने से क्या होगा?

निवालों के लिए तरसे हुआ मुँह भी खोलना मुश्किल।
क्यूँ जिन्दा होते हुए,अपनी ही मौत का मातम लो तुम।

बदलता दौर है बदलो मगर इतना न बदलो तुम।
शर्म से नज़रें हों बोझिल अभी है वक़्त सम्हलो तुम।

वैभव”विशेष”

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गुरुवार, 25 जून 2015

खुदसुनना होगा

खुद को लीडर करने के लिए
सबसे बेहतर गढने के लिए
तेरे भीतर हैं खास कोई
बना हैं तू जिस काम हसिं
उसि को ढूंढना होगा
तुझे खुद को सुनना होगा
हॉ तुझे खुद को चुनना होगा

दुनिया वाले भरमायेनगें
पागल हैं गलत हैं बतायेंगे
वजूद तेरा मिट जायेगा
ये भि तुझे समझायेंगे
तुझको तेरे खातिर पर
पहल खुद ही करना होगा
विश्वास से जिम्मेदारी जोखिम
खदही वहन करना होगा
तुझे………….
जब तेरा चाहत राह करम एक हो जायेगा
तेरे पथ का हर मुश्किल आसा नजर आयेगा
डूब जायेगा रोम रोम कर्म मे हि खो जायेग
ऐसे हस्ते हस्ते तू मजिंल पा जायेगा
लेकिन इसके खातिर तुझे खुदी संग चलना होगा

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झूमके ये घटा कभी बरसती न थी............

    1. जरूर आज उसने भीगी जुल्फों को झटका होगा,
      वरना ऐसे तो झूमके ये घटा कभी बरसती न थी !

      जरू किसी मतवाले बादल को मस्ती छायी होगी
      ऐसे तो मनमयूरी नाचने को कभी तरसती न थी !

      शायद बरसात की भीगी रातो में याद आई होगी,
      अब से पहले कभी रात इतनी काली होती न थी !

      रो रोकर गिरे अश्को से उसके बर्फ कुछ जमी होगी,
      पहले तो बारिश में ऐसी ओलावृष्टि बिखरती न थी !

      चुभती होगी उसके बदन बारिश की बूँद तन्हाई में,
      पहले भी होती बारिश हर साल ऐसे अखरती न थी !
      !
      !
      !
      डी. के निवातियाँ _________@@@

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षब्द क्यों छूछे लग रहे

सारे षब्द क्यों छूछे लग रहे हैं
क्यों सारी भावनाएं उधार सी लग रही हैं
सेचता हूं तुम्हारे लिए कोई टटका षब्द दूं
उसी षब्द से पुकारूं
मगर सारे षब्द उधर के क्यों जान पड़ते हैं।
जब भी तुम को चाहा कहना
कि अच्छी लगती हो
तभी सब के सब उधार के षब्द
मंुह चिढ़ाने लगते हैं
कहते हैं ये तो फलां ने भी कहा था
कुछ नया कहो
कुछ तो नवीनता हो।
घंटों षब्दों की मंड़ी तो बौराया फिरता हूं
झाड़ पोछ कर कोई चुन लेता हूं
तभी बगल में खड़ा कोई दूसरा षब्द कहने लगता है
अरे जनबा मुझे ले चलो
मुझे इस्माल करो
फिर देखो
कैसे रूठे भी गले लग जाएंगे।
जैसे ही षब्द को घर लाता हूं
पास खड़ी मुंह बिराती चुगली करती है
अरे इसे तो फलां कवि ने जूठा कर दिया था
तुम तो जूठन ही खाया करो
अपनी भी जबान हिला लिया करो
कभी तो नवीन बातें
नई षैली में कहा करो।
कभी कालिदास तो
कभी मिल्टन
कभी कभार भटकते हुए पहुंच जाता हूं
आधुनिक कवि के पास
लेकिन वो भी निकला खाली का खाली
उसके पास भी छूछे षब्द ही मिले
वापस थक हार कर कहता हूं
तुम बेहद नव्य हो
नूतन हो
हमरे पास रहो ऐ गोइया
हमरे पास
आंधी बुनी
उंच नीच में
हमरे पास रह ए गोईया।

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मैं क्यों लिखूँ

मन तो मेरा भी करता है
कविता लिखूँ,
चारों दिशाओं पे,
मुस्कुराती फिज़ाओं पे,
महकती हवाओं पे,
झूमती लताओं पे,
बल खाती नदियों पे,
कलकल बहते झरनों पे,
हिमालय के चरणो पे।
पर जब भी देखता हूँ,
आतंकी मंजर को,
धमाकों के खंजर को,
लुटती पिटती कलियों को,
धूँए भरी गलियों को,
नक्सलवादी नारों को,
खुले फिरते हत्यारों को।
जब भी देखता हूँ,
सिसकते हुए बचपन को,
बिकते हुए यौवन को,
धक्के खाते बुढ़ापे को,
भारत में फैले हुए स्यापे को।
देखता हूँ जब भी,
फांसी लटकते हुए किसान को,
समय से पहले बुढ़ाते जवान को,
धक्के खाते बेरोजगार को,
घोटालों के अंबार को।
तो
मैं लिख नहीं पाता हूँ,
कामिनी के केशों पे,
दामिनी के भेषों पे,
बल खाती चोटी पे।
नहीं लिख पाता मैं,
कुर्ती और कमीज पे,
सावन वाली तीज पे,
आँखों वाले काजल पे,
पाँवों की खनकती पायल पे।
मुझे दिखती है,
सिर्फ सिसकती माँ भारती,
जो हरदम मुझे पुकारती।
इसलिए
मैं लिखता हूँ केवल,
सैनिक की साँसों को,
माँ के उर में चुभती फाँसों को,
बच्चों के बचपन को,
बूढ़ों की उम्र पचपन को,
मैं लिखता हूँ सीता सतवंती को,
सावित्री सी लाजवंती को,
द्रौपदी और दमयंती को।
युगधर्म पर लिखना मेरा काम है,
तुम्हें मुबारक हो शृंगार,
देशधरम पर लिखना ही,
मेरी शान है।

Manoj Charan “Kumar”
Mo. 9414582964

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हालत गंभीर है मेरे देश में

सरेराह नीलाम हो रही आबरू जब देश में,
कैसे गाऊँ गीत प्यार के, हालत गंभीर है मेरे देश में।

सरे बाजार जब बम फटते हो, दूध पीते बच्चे कटते हो,
बह जाती नदियों में लाशें, सिमटी हो नोटों में साँसे,
मौत विचरण करती रहती, हरदम आदमी के वेश में,
कैसे गाऊँ गीत प्यार के, हालत गंभीर है मेरे देश में।१।

चर जाते गायों का चारा, अफसर नेता मिलके सारा,
कामयाबी के गली-कूंचो में, सीडी बन बिक जाती अनारा,
कौन वतन कितना बेचेगा, हौड़ होती राजनीति की रेस में,
कैसे गाऊँ गीत प्यार के, हालत गंभीर है मेरे देश में।२।

आतंकी सायों में जीते, साल ना जाने कितने बीते,
लाल किले को लाल कर गए, संसद में सैनिक पाँच मर गए,
नहीं सुरक्षित रहे अब तो, रामलला भी इस देश में,
कैसे गाऊँ गीत प्यार के, हालत गंभीर है मेरे देश में।३।

राह चलती लड़कियों पर, यहाँ तेजाब फेंक दिया जाता है,
पुष्कर से पावन तीर्थों पर, नंगा नाच हो जाता है,
कुचल आदमी कारों नीचे, बच जाते सल्लू मियां इस देश में,
कैसे गाऊँ गीत प्यार के, हालत गंभीर है मेरे देश में।४।

फिल्मी परदे वाली परियाँ, वस्त्र त्यागती जाती है,
कभी किसी धर्मगुरु से, सीता लांछित हो जाती है,
सावरकर से बलिदानी को, गुंडा कहा जाता इस देश में,
कैसे गाऊँ गीत प्यार के, हालत गंभीर है मेरे देश में।५।

राजनीति में राज हो गया, गुंडो और मवाली का,
ना रहा मोल राखी का, ना रहा सिंदूर की लाली का,
दब जाते मंगलसूत्र यहाँ पर, तलाक कानूनी आदेश में,
कैसे गाऊँ गीत प्यार के, हालत गंभीर है मेरे देश में।६।

तंदूरों में जगह रोटी की, बेटियाँ सिक जाती है,
फैसन की माया नगरी में, आबरू बिक जाती है,
पैसे की खातिर बिक जाती, नारियां अब देश में,
कैसे गाऊँ गीत प्यार के, हालत गंभीर है मेरे देश में।७।

जी चाहता है आग लगा दूँ, इस भ्रष्टाचारी व्यवस्था में,
देश जा रहा देखो मेरा, सांस्कृतिक गुलामी अवस्था में,
कैसे बचेगा कौन बचाये, गंगा को भी रोक दिया जिस देश में,
कैसे गाऊँ गीत प्यार के, हालत गंभीर है मेरे देश में।८।

– मनोज चारण (गाडण) "कुमार" कृत
mo. 9414582964

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वर्तमान परिदृश्य

प्रबल और प्रचंड और प्रपंच का प्राधिकार है
सबल पर अंकुश नहीं, निर्बल पर प्रहार है
प्रलेख, प्रादुर्भाव से प्रचार का वर्चस्व है
शिलालेखों पर अंकित नाम अब निराधार है
युगों युगों का इतिहास अब प्राचीन नाममात्र है
प्रकाश का प्रयास भी भेद न पाये, ऐसा अंधकार है
प्रमाण के परिमाण का नहीं किसी को भान है
पोंगा लगा कर चिल्लाता जाये वही सत्य और ज्ञान है
परिवारों की परिभाषा बदल रही, अंतर्मन में प्रलाप है
वैभव ऐश्वयर्य का आडम्बर दिखाता मानव, फिर भी हाहाकार है
ज्वाला घट-घट जल रही स्वयम के अंतस को जला रही
परन्तु पारितोषिक, पदक की होड़ ने किया बंटाधार है
प्रातःकाल का विष सेवन रात्रि में करता विश्राम, वमन से
प्रासंगिक नहीं पर्व है प्रमाद हुआ प्रसंग है
प्रीत का परिहास है, प्रियतम का उपहास है
प्रबल और प्रचंड और प्रपंच का प्राधिकार है
– राजेश टावरी

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ढूंढ़ती है निगाहें तुम्हे (ग़ज़ल)

ढूंढ़ती है निगाहें तुम्हे,तू छुपा है जाने कहाँ।
आ लौट आ हमसफ़र,तू रुका है जाने कहाँ।

न तड़पा दिल को बनके पिया परदेसी तू,
आ गई सावन बरखा, तू रुका है जाने कहाँ।

तेरे दरस को प्यासी है, जाने कबसे मेरी नैना,
पिया बसंती बुला रही, तू रुका है जाने कहाँ।

मधुबन में आई हुँ, बनके राधा – रानी मै,
आ जा प्रेम बरसाने,तू रुका है जाने कहाँ।

क़ुर्बा है जोबन मेरी, तेरे लिए उम्र – भर,
आ बाबुल घर मुझे लेने,तू रुका है जाने कहाँ।

तनहा ज़िंदगानी कैसे जीयू, तू भी लिख खत,
दे जवाब मेरी सवालो के, तू रुका है जाने कहाँ।

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गरमागरम थपेड़े लू के

गरमागरम थपेड़े लू के
…आनन्द विश्वास

गरमागरम थपेड़े लू के, पारा सौ के पार हुआ है,
इतनी गरमी कभी न देखी, ऐसा पहली बार हुआ है।
नींबू – पानी, ठंडा – बंडा,
ठंडी बोतल डरी – डरी है।
चारों ओर बबंडर उठते,
आँधी चलती धूल भरी है।
नहीं भाड़ में सीरा भैया, भट्ठी-सा संसार हुआ है,
गरमागरम थपेड़े लू के, पारा सौ के पार हुआ है।
आते – जाते आतंकी से,
सब अपना मुँह ढ़ाँप रहे हैं।
बिजली आती-जाती रहती,
एसी, कूलर काँप रहे हैं।
शिमला नैनीताल चलें अब,मन में यही विचार हुआ है,
गरमागरम थपेड़े लू के, पारा सौ के पार हुआ है।
अभी सुना भू-कम्प हुआ है,
और सुनामी सागर तल पर।
दूर-दूर तक दिखे न राहत,
आफत की आहट है भू पर।
बन्द द्वार कर घर में बैठो, जीना ही दुश्वार हुआ है,
गरमागरम थपेड़े लू के, पारा सौ के पार हुआ है।
बादल फटा, बहे घर द्वारे,
नगर-नगर में पानी-पानी।
सृष्टि-सन्तुलन अस्त व्यस्त है,
ये सब कुछ अपनी नादानी।
मानव-मन पागल है कितना,समझाना बेकार हुआ है,
गरमागरम थपेड़े लू के, पारा सौ के पार हुआ है।
…आनन्द विश्वास

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बुधवार, 24 जून 2015

क्योकि बेटी का बाप हूँ...........

    1. क्योकि बेटी का बाप हूँ !!

      सर उठा कर चल नही सकता
      बीच सभा के बोल नही सकता
      घर परिवार हो या गांव समाज
      हर नजर में घृणा का पात्र हूँ !
      क्योकि “बेटी” का बाप हूँ !!

      जिंदगी खुलकर जी नहीं सकता
      चैन की नींद कभी सो नही सकता
      हर एक दिन रात रहती है चिंता
      जैसे दुनिया में कोई श्राप हूँ !
      क्योकि “बेटी” का बाप हूँ !!

      दुनिया के ताने कसीदे सहता,
      फिर भी मौन व्रत धारण करता,
      हरपल इज़्ज़त रहती है दाँव पर,
      इसलिए करता ईश का जाप हूँ !
      क्योकि “बेटी” का बाप हूँ !!

      जीवन भर की पूँजी गंवाता
      फिर भी खुश नहीं कर पाता
      रह न जाए बेटी की खुशियो में कमी
      निश दिन करता ये आस हूँ
      क्योकि “बेटी” का बाप हूँ !!

      अपनी कन्या का दान करता हूँ
      फिर भी हाथजोड़ खड़ा रहता हुँ
      वरपक्ष की इच्छा पूरी करने के लिए
      जीवन भर बना रहता गूंगा आप हुँ
      क्योकि “बेटी” का बाप हूँ !!

      देख जमाने की हालत घबराता
      बेटी को संग ले जाते कतराता
      बढ़ता कहर जुर्म का दुनिया में
      दोषी पाता खुद को आप हूँ
      क्योकि “बेटी” का बाप हूँ !!

      !
      !
      डी. के. निवातियाँ ______@@@

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मंगलवार, 23 जून 2015

वतन से विदाकर चले ..... (देशभक्ति गीत)

    1. कर के फना अपनी जान
      हम वतन से विदाकर चले ,
      अब कैसे तुम इसे संवारो
      ये हक़ तुम को अदा कर चले !!

      सींचकर अपने लहू जिगर से
      हमने आजादी का वृक्ष लगाया
      कैसे फले फूलेगा बीच शत्रुओ के
      ये भार तुम्हारे हवाले कर चले !!

      मिटा देना या सजा लेना
      लाज इसकी तुम्हारे हाथ,
      अब बचा लेना या गँवा देना
      ये काम तुम्हारे नाम कर चले !!

      खिलती कलि सी इसकी जवानी
      बढ़ती उमरिया की चढ़ती रवानी
      दुनिया की आँखों में ये खटकती
      इसकी आन तुम्हारे नाम कर चले !!

      इस दुनिया का चिराग ये भूमि
      प्रसाद है इसके चरणो की धूलि
      सेवा में इसकी मर मर जाऊं
      ऐसा प्रण हम तुमसे कर चले !!

      कर के फना अपनी जान
      हम वतन से कर विदा चले ,
      अब कैसे तुम इसे संवारो
      ये हक़ तुम को अदा कर चले !!

      डी. के, निवातियाँ _____@@@

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father's Day पर विशेष...

मेरे पिता एक मिसाल हैं
मेरी कामयाबी की….
मेरे पिता एक ज़ज्बा है
मेरे कुछ कर गुजरने का….
हाँ मैंने उनसे ही सीखा है
गम में भी मुस्कुराना
और अपना हर दर्द छुपाना
कुछ बाते उन्होंने सिखाई
तो कुछ मैं उन्हें देखकर
सीखने की कोशिश करता
हाँ उन्होंने मुझे कभी ये
नहीं बताया कि बेटा जिंदगी
में बहुत मुश्किलें आती हैं
जो कदम कदम पर आजमाती है
क्यूंकि उन्होंने मेरे लिए सब
अकेले ही हंसकर उन्हें सहा है..
पर मै भी उनका ही बेटा हूँ
जान ही लिया उनकी आँखों को पढ़कर
कि कभी सर्दी की दोपहरी,
गर्मी की दोपहरी से ज्यादा
तपाने वाली हो सकती है …
पर मैंने उनसे ये भी सीखा है
चाहे कितना भी तपो..कितना भी जलो
लक्ष्य से कभी मत हटो
हर हाल में खुश रहो..और
अपना प्यार उन सभी पे लुटाते चलो
जो तुमसे जुड़े है ..उनकी फिक्र करो
जिन्हें फिक्र है तुम्हारी…
उनके साथ चलो
जिन्हें जरुरत है तुम्हारी
तुम खुद को कभी अकेला
नहीं पाओगे क्यूंकि…
मै हमेशा तुम्हारे साथ हूँ..
हर मोड़ पे ..हर कदम पे..
‪#‎himanshuMohan‬ ‪#‎HAPPYFATHERSDAY‬

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बारिश के रंग , मुंबई के संग

बारिश के रंग , मुंबई के संग

हर बार की तरह
इस बार भी इंद्र देव
मुंबई पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान हो गए
जीब जंतु पशु पक्षी की प्यास
लम्बे अंतराल के बाद शांत हो गयी
तालाब पोखर झील फूल कर
अपने भाग्य पर इतराने लगे
मुंबई बालों को पाने पीने के लिए
अब कटौती नहीं सहन करनी पड़ेगी
हर बार की तरह
इस बार भी लोगो को परेशानी झेलनी पड़ी
कुछ लोग ट्रेन और रस्ते में फँस गए
मुंबई के कुछ आधुनिक इलाकें
हिंदमाता , अंधेरी ,दादर ,परेल , कुर्ला
हर बार की तरह इस बार भी पानी में डूबने लगे
हर बार की तरह में उस दिन
मीडिया बाले चर्चा करके
टी आर पी बटोरने लगे
हर बार की तरह इस बार भी
जो लोग घर पर रहे चटकारे लेकर
ख़बरों का आनंद लेने लगे कि बो बच गए परेशानी से
हर बार की तरह इस बार भी
बी एम सी के लोग
अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने की कोशिश करते दिखे
आमची मुंबई के लोग भी
हर बार की तरह परेशान दिखे
करते तो क्या करते
स्थानीय लोगों की पार्टी का ही कब्ज़ा है
बी एम सी पर
काफी समय से
नाराज हों बो भी अपनों से
चलो इस बार कुछ नहीं बोलते हैं
शायद अगले साल
कुछ सुधार देखने को मिले
अगले दिनों का इन्तजार करने लगें

मदन मोहन सक्सेना

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मुझे होश है नहीं।

पी ली है आज मैंने मुझे होश है नहीं।
मगर जो होश में हैं वो क्यूँ बेखबर हैं?

तमाम कोशिशें भी गर्म शीशे सी पिघली
राह में ज़िन्दगी भटकी क्यूँ दरबदर है?

एहसासों को मसल के कई ख्वाब सजे
आशियाने के ठिकाने भी क्यूँ बेघर हैं?

थी मेरी भी हस्ती महफूज रखने की
दिल की खातिर दुआ क्यूँ बेअसर है?

कुछ तो थी शख्शियत मेरी चाहत की
जिन नज़रों ने दी ठोकर क्यूँ बे-सबर हैं?

इम्तिहानों से गुजर के भी ईमान कायम है
शख्स वो उतना ही परेशाँ क्यूँ मगर है?

दीवारों पे तो लिखे हैं नाम,दिल ख़ाली है
ऐसे इश्क से तो अच्छा,तन्हा हम अगर हैं।

वैभव”विशेष”

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सोमवार, 22 जून 2015

आंगन कहां है अम्मा

आंगन कहां है अम्मा
घर भर में एक आंगन ही हुआ करता था
जहां अम्मा बैठाकरती थीं
अंचरा में बायन लेकर
रखा करती थीं हाथ में बायन
तोड़ तोड़कर गाजा, लड्डू
ठेकुआं।
आंगन ही था-
जहां बैठा करते थे
पिताजी
स्कूल से लौटकर
रखा करते थे
झोला भरे तरबूज से या मकई से।
हमें पिताजी का इंतजार कम
झोले का जोहा करते थे बाट
डांट भी वहीं मिला करता आंगन में,
धीरे धीरे आंगन बदल गया कमरे में
कमरे दबडे में।
आंगन ही हुआ करता था
जहां गड़ता था बांस
मंड़प भी वहीं छवाया जाता था
हल्दी भी वहीं लगती थी बहन या भाई को।
आंगन ही था जहां दादी रखी गई थीं-
सोई थीं दादी अंतहीन यात्रा पर जाने के बाद
सभी वहीं हुए थे इकट्ठे
चाचा, चाची,
बुचुनिया की माई
ओमबहु
सब वहीं लोर बहाए थे
वह आंगन ही था।
टू प्लस वन
या त्रि प्लस वन में
कई बार चक्कर काट चुका हूं
कहीं आंगन नहीं मिला
न मिली वह जगह जहां संग संग बैठ सकें सभी
कभी जुट जाएं रिश्तेदार,
भाई बहन।
वैसे भी अब ये लोग भी तभी आते हैं
जब कोई शादी ब्याह हो
या फिर……

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रविवार, 21 जून 2015

धर्म बदलो ये अहम नहि

धर्म बदलो ये अहम नहि पर मन बदलना चाहिये
सर्त हैं ख्याल हर ईक जन बदलना चाहिये
गीता पढे कुरान या अन्य कोई गर्न्थ महान
सत्य प्रेम विश्वास मधुरता के करते सब रस बखान
महत्व हैं जब हर एक में ये रस उतरना चाहिये
धर्म…………..
वस्ञ पहन काला सफेद गेरूआ हो आखिर क्या हैं भेद
मंनदिर ,मस्जिद गुरूद्वारे या चर्च मे अपना मस्तक टेक
कटा ले मूछ बढा ले डाढि चाहे न काट अपनी केश
फर्क हैं जब तेरे स्वामि में विश्वास उमरना चाहिये
धर्म…………..
धर्म सभि हैं जग भवर मे तैरति समगति नईया
सवार हो हम राह ना भटके मन हि इसका खेवइया
धर्म बदला नईया बदलि खेवइया तो वहि रहि
खेवइया जब वहि रहि तो नईया आखिर क्यो बदलि
बदलो मगर अहम को बदलो जन जन प्रेम उभरना चाहिये
धर्म…………..

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योग करे निरोग।

जब मन हो व्याकुल व्याकुल
और तन में लगा हो कोई रोग।

कैसे,कब,क्यूँ की चिंता में डूबे
उदर को न भाये कोई भोग।

पद्मासन में बैठ फिर जाओ
नेत्र बन्द कर ध्यान लगाओ।

समस्त समस्या का हल होगा
रोग मिटेंगे कर लो सब योग।

पाश्चात्य देशों ने भी मान लिया
योग का सही अर्थ जान लिया।

कपालभाती,भस्त्रिका प्राणायाम
कर प्राप्त करो सुखद संयोग।

वैभव”विशेष”unnamed (3)

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