सोमवार, 30 नवंबर 2015

आ जाओ मेरे आँगन "गीत"

सावन का मदमस्त घटा हो तुम
आ जाओ मेरे आँगन झुमेंगे नाचेंगे हम !

नींद चुराने वाली
सपनो में आने वाली
महकी पुरवा हो तुम
जुबा मेरी गा रहा
तेरी चाहत की धुन ….
सावन का मदमस्त घटा हो तुम
आ जाओ मेरे आँगन झुमेंगे नाचेंगे हम !!

हँसते हैं,रोते हैं
तुझे याद करके अब
दिल हो जाता हैं बेचैन
आती नही हो नज़र जब तुम ….
सावन का मदमस्त घटा हो तुम
आ जाओ मेरे आँगन झुमेंगे नाचेंगे !!

मैं दीवाना हू तेरा बचपन से
न तड़पाओ ऐसे इस कदर मेरे यार
कि हैं तुम्हारी वर्षो से इंतज़ार
सहा हैं दर्द मैने हजार ….
सावन का मदमस्त घटा हो तुम
आ जाओ मेरे आँगन झुमेँगे नाचेंगे हम !!

दिल की दुरियाँ मिटा दो नजदिक आके
यकिन कर लो सिर्फ तुमसे हैं प्यार
उम्रभर रहेंगे बनके साया तुम्हारी
तुमसे बिछड़ के मर जायेंगे यार ….
सावन का मदमस्त घटा हो तुम
आ जाओ मेरे आँगन झुमेंगे नाचेंगे हम !!

पास आओ दिल चुराओ
दामन थामो न
तुझे देख मुस्कुरायेंगे हम
तेरी आचल मे छुप जायेंगे हम ….
सावन का मदमस्त घटा हो तुम
आ जाओ मेरे आँगन झुमेंगे नाचेंगे हम !!!
Dushyant kumar patel //

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हार्ट एनलार्ज

कुछेक पंद्रह सोलह साल पहले की ही बात है ,
मेरे डॉक्टर ने कहा था ,
मैडम आपका हार्ट एनलार्ज है ,
इलाज करवा लीजिये,
भविष्य में समस्या हो सकती है

मैने सोचा हार्ट एंलार्जेमेंट ,
तो कोई बीमारी नहीं लगती है ,
मेरे पापा का भी हार्ट बहुत लार्ज था ,
तो मेरा भी हार्ट एनलार्ज होना ही था ,
अगर यह कोई बीमारी है तो,
वीह तो हमारे जींस से मिली है।

और बात आई गई हो गई ,
इसी बीच हमारे उन बुजुर्ग डॉक्टर का ,
स्वर्गवास भी हो गया ,
यूँ ही बैठे बिठाये ,
कुछ दिन पहले ,
मुझे अपनी उस बीमारी का ,
ख्याल आ गया।
हार्ट एनलार्ज
,गर मेरा था ,
तो मुझे कोई समस्या ,
क्यों नहीं हुई?
मेरा,अपने उन डॉक्टर पर,
अपार श्रद्धा और विश्वास था।

मैं इस बात से बहुत ही हैरान हूँ ,
क्युकि आज जब ,
तरह तरह की बीमारियां ,
मेरा पता पूँछ पूँछ कर ,
बिन बुलाये मेहमान की तरह ,
आ धमकती हैं। ,

तो क्या हुआ मेरी उस ,
बीमारी को ?तो
क्या वोह अपने ,
आप ही ठीक हो गई?
या मेरा दिल ही समय के साथ ,
कुछ छोटा हो गया है।

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चलो बुहारें अपने मन को

चलो बुहारें अपने मन को
…आनन्द विश्वास

चलो, बुहारें अपने मन को,
और सँवारें निज जीवन को।

चलो स्वच्छता को अपना लें,
मन को निर्मल स्वच्छ बना लें।

देखो, कितना गन्दा मन है,
कितना कचरा और घुटन है।

मन कचरे से अटा पड़ा है,
बदबू वाला और सड़ा है।

घृणा द्वेष अम्बार यहाँ है,
कचरा फैला यहाँ वहाँ है।

मन की सारी गलियाँ देखो,
गंध मारती नलियाँ देखो।

घायल मन की आहें देखो,
कुछ बनने की चाहें देखो।

राग द्वेष के बीहड़ जंगल,
जातिवाद के अनगिन दंगल।

फन फैलाए काले विषधर,
सृष्टि निगल जाने को तत्पर।

मेरे मन में, तेरे मन में,
सारे जग के हर इक मन में।

शब्द-वाण से आहत मन में,
कहीं बिलखते बेवश मन में।

ढाई आखर को भरना है,
काम कठिन,फिर भी करना है।
…आनन्द विश्वास

http://anandvishvas.blogspot.in/2015/11/blog-post_30.html

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हम तुम ........( गीत )

हम तुम ……..( फिल्म गीत )

मिलना लिखा था किस्मत में, किस्मत से मिल गए हम तुम !
बनके चले राही एक मंजिल के,अब कभी जुदा न हो हम तुम !!

एक दूजे बिन लगता सब अधूरा
बिन दूजे के कैसे हो ख्वाब पूरा
आये हो पहलू में खुशबू की तरह
समेटने से बिखरते जाए हम तुम !!

मिलना लिखा था किस्मत में, किस्मत से मिल गए हम तुम !
बनके चले राही एक मंजिल के,अब कभी जुदा न हो हम तुम !!

अक्सर दो कदम चलकर संग
फिर रुक जाया करते है लोग
तोड़कर इस चलन को दुनिया में
एक मिसाल बन जाए हम तुम !!

मिलना लिखा था किस्मत में, किस्मत से मिल गए हम तुम !
बनके चले राही एक मंजिल के,अब कभी जुदा न हो हम तुम !!

कहीं किसी रोज़ ऐसा होता
हमारी हालत तुम्हारी होती
तड़प का अहसास जब होता
मिलन का कारण बनते हम तुम

मिलना लिखा था किस्मत में, किस्मत से मिल गए हम तुम !
बनके चले राही एक मंजिल के,अब कभी जुदा न हो हम तुम !!

खूबियाँ इतनी तो नही हम में
क्यों कर याद करे ये दुनिया
बस इतना ऐतबार बरकरार रहे
कभी एक दूजे को न भूले हम तुम !!

मिलना लिखा था किस्मत में, किस्मत से मिल गए हम तुम !
बनके चले राही एक मंजिल के,अब कभी जुदा न हो हम तुम !!

!
!
!

@—-डी. के निवातियाँ —-@

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चल चल चल,
आगे बड़ता चल,
रास्ते हैं टेड़ी-मेड़ी,
जरा तु संभल के चल,
चल चल चल…
आगे बड़ता चल….
मिलेगी तुझे हर एक परेशानी,
हर कठनाईयाँ का सामना करता चल
मंज़िल को पाना हैं,
आगे बड़ता चल…
चल चल चल,
आगे बड़ता चल….
आसमा को झुकाना हैं,
तारे ज़मी पर लाना हैं,
चाहे मिलेगी खुशियाँ,
चाहे मिलेगी गम,
आगे बड़ता चल….
चल चल चल,
आगे बड़ता चल….
रास्ते चाहे कितनी हो टेड़ी-मेड़ी,
आगे बड़ता जाएगें,
हर गम को छोड़,
खुशियाँ लाना हैं,
आगे बड़ता चल….
चल चल चल,
आगे बड़ता चल……
@md.juber husain

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सुन्दरता

चाहे कितना भी भर लो
अपनी सोच से ज्यदा
पहुँच से ऊपर

ढेर लगा लो पैसे का
जाल बिछा लो रिस्तो का
जितना हो सके खरीद लो
छल लो किसी को प्यार के नाम से

खुद को बंद कर लो
खुशी नाम के संदूक में
चाहे कुछ भी कर लो
जीत नहीं पाओगे
भीतर के सूनेपन को

आकाश से कम है तुम्हारे पास
न कोई मुकाबला, न कोई मेल
अनगिनत तारे, सूरज, गृह
आकाश गंगा और हजारो लोग

सब भरा पड़ा है
फिर भी खाली दिखता है
सुना नज़र आता है
गुमसुम हो कर भी सुन्दर दिखता है

आकाश सिर्फ अपने आप को सुनता है
कभी खुद को सुनो
खालीपन के सुन्दरता को देख
सकेगो

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कहाँ खो गई मेरी माँ

उन दिनों की बात है जब पास थी तुम मेरी माँ,
दुख दर्द का भी न था अहसास,
सिर्फ खुशियाँ थी मेरे पास,
सभी थे अपने,था प्यार सभी का मेरे पास,
जब तुम चली गई, जैसे लगा टूट पङा हो पहाङ,
आँखो से आँसू न थम पाए,
फिर अपने भी लगने लगे पराए,
देख दूसरों की माँ को लगा कहाँ खो गई मेरी माँ !!…….
नन्हे-नन्हे हाथों से करता रहता हूँ मै काम,
एक रोटी का टुकङा भी न होता मेरे नाम,
कपङे भी है मैले मेरे न कोई रखता है अब मेरा ध्यान,
न खाने को कोई देता,सिर्फ करता रहता हूँ मै काम,
देख खेलते उन बच्चों को दिल में उठता एक तूफान,
आँखो में आँसू भर आते न मिलता कुछ आराम,
फिर दिल मुझसे यही पूछता कहाँ खो गई माँ
!!………
जब भी याद मुझे है आती,देखा करता तारों को,
फिर रातों में ढूँढा करता कौन सी है मेरी माँ,
इस दुनिया की भीङ में कहाँ छोङ गई मुझको माँ,
ऐसा लगता मुझको अब तो आ जाऊँ पास तुम्हारे माँ !!……..

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रविवार, 29 नवंबर 2015

"बेटी और कोख"

बलात्कार की बढती घटना से त्रस्त एक मां की अपनी कोख मे पल रही बेटी के लिये संवेदना.

“बेटी और कोख”

आ बेटी तुझपे आज मै कोख अपनी अर्पण कर दूं.,.!!

जीते जी ही तेरे मै कोख मे तेरा तर्पण कर दूं…..!!

आ बेटी तुझपे आज मै कोख अपनी अर्पण कर दूं..!!

मुझे पता है मुझे इल्म है मै निर्लज कातिल कहलाऊंगी..!!

पी लुंगी हर घुंट खुन का और दंष हर तानों का सह जाऊंगी..!!

पर जो दर्द मिलेगा तुझको इस बाहरी दुनिया मे,वो दर्द न मै सह पाऊंगी..l

तुझे नही पता इस दुनिया का बेटी,जब तेरा पहला कदम दुनिया मे आयेगा..
बाहर बैठा कई भेड़ीया तुझे देख कर लाड़ टपकायेगा..!!
और आगे जाकर यही भेड़ीया इज्ज्त का तेरी वोटि वोटि नोच खा जायेगा..!!!

ना देखेगा कोई उम्र तुम्हारा और ना ही तुम्हारी कोमलता
बस अपनी काम-पिपासा की खातिर तेरा चिड़ हर लेगा उसकी पशुता

लूट रही थी जब इज्जत द्रौपदी की तब कृष्ण बचाने आयें थे..
पर आज के इस दानवों की दुनिया मे ना कोई कृष्ण आयेगा..

जब आज पिता ही बन बैठा है कंश और भाई बन बैठा दुर्योधन..
इस नामर्दों की वस्ती मे तब कौन बचाने आयेगा तुम्हारा स्त्रीधन..?

आ बेटी तुझपे आज मै अपनी कोख अर्पण कर दूं..
जीते जि ही तेरा आज कोख मे तेरा तर्पण कर दूं…!!!

कितना अच्छा होता गर बेटी कोख मे ही पल बढ लेती..
ममता का दीवार खड़ी कर मां आंचल का छत कर देती…

माफ कर देना मुझको अभी तुम बेटी .
पर फिर से तुम्हे इस दुनिया मे लाऊंगी..
जब ये मूर्ख दरिन्दे बेटी का महत्व समझ जायेंगे..
एक बेटी ही तो औरत बनती है और बनती है जननी,
नही रहेगी बेटी जब इस दुनिया मे तो किसे देंगे ये मां की उपमा,
और बहन-बीवी किसे बनायेंगे..?

मर्दों की इस दुनिया मे क्या वो ही बच्चें जनने आयेंगे.?

आ बेटी तुझपे आज मै अपनी कोख अर्पण कर दुं..!!

आ बेटी तुझपे आज मै अपनी कोख अर्पण कर दूं..!!

विनोद कुमार “सिन्हा”

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मुद्दतों बाद

मुद्दतों बाद आज अंगने में मेरे
बरसात हुई ,
भीग गया तन -मन मेरा
मैं छुई -मुई की
डाल हुई ,
मुद्दतों बाद …..

थी धरा प्यासी मैं मुद्दत से
बनकर बादल वो छाये हैँ
जाने कितना वक्त लगा पर
शुक्र है कि वो आये है
उनकी बाहों में जब सिमटी
तो फिर से सुहागन
रात हुई,
मुद्दतों बाद….

उनके प्यार की झिलमिल बूँदे
लबों पे मेरे गिरती जाती
अँखियों के मोती भी झरते
दिल की कलियाँ खिल -खिल जाती
आज बना है वो मयकश और
मैं मदिरा का पात्र हुई,
मुद्दतों बाद……सीमा “अपराजिता “

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तू महसूस करता है या नही.....

पता नहीं तू महसूस करता है या नही ….
मैं हूँ तुझमे शामिल तेरी साँसों की तरह
तेरी धड़कनो के साथ धड़कती हूँ मैं
तेरी साँसों के साथ महकती हूँ मैं
पता नही तू महसूस करता है या नही..

तू अक्श है मेरा मैं परछाई तेरी
तू सागर मेरा मैं गहराई तेरी
कुछ भी नही मैं तेरे बिना
कुछ भी नही तू मेरे बिना
पता नही तू महसूस करता है या नही …..सीमा “अपराजिता “

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शनिवार, 28 नवंबर 2015

क्या बोया , क्या पाया, क्या खोया ............?

क्या बोया, क्या पाया, क्या खोया…?
बहुत कुछ बोया, बहुत कुछ पाया, बहुत कुछ खोया.!
अब जब बीत गयी ज़िन्दगी तीन चौथाई, फिर भी समझ नहीं पाता
क्या कुछ बोया,क्या कुछ पाया,क्या कुछ खोया ?

बचपन खो गया, जवानी के इंतज़ार में?
जवानी खो गयी, सब कुछ पा लेने की आस में?
और आज……?
खड़ा हूँ उम्र की उस दहलीज़ पे, जिसे सब बुढापा कहते हैं ..!
पीछे मुड़ कर जब भी देखता हूँ,आती और जाती रहती है ..!
एक एक तस्वीर मानस पटल पे, पर,कुछ भी ठहर नहीं पाता.!

और फिर……..?
मैं रह जाता हूँ, अकेला, उसी चिंतन में ..!
क्या बोया, क्या पाया, क्या खोया.?

अजीब सी विडिम्बिना है ? नियति आखिर क्या है इस ज़िन्दगी की ?
धन, दौलत, यश, नाम, प्रसिद्धी, पर इनका तो कोई अंत नहीं ?
बार बार यक्ष की तरह वही प्रश्न कुदेरता रहता है..?
क्या बोया, क्या पाया, क्या खोया…………….?

तो फिर ………….?
बंद मुठ्ठी आया था अकेला इस संसार में,
खाली हाथ पसारे जाऊंगा अकेला इस संसार से,
अब तो यही लगता है, सब कुछ पाया, बस खोने को ?

पर ईश्वर……………..?
वह तो विद्यमान था सदैव हमारे ही अंदर
क्यों देर कर दी उसे पहचानने में,क्यों तलाश कर नहीं सका सारी ज़िन्दगी …………..!
भटकता रहा, फिर भी जान न पाया अपने ही अंदर के विद्यमान ईश्वर को………..!

और अब
इस बची हुई एक चौथाई ज़िन्दगी में?
तलाश करने की कोशिश करता हूँ उसे?

पर
अब यह शरीर साथ नहीं देता………!
यह तो बूढा हो गया है ………….!
रहता है ग्रसित हर वक्त किसी न किसी बीमारियों से….!
किसी न किसी दर्द से घिरा रहता है ये शरीर ?
या यूं कहें की दर्द ही अब ज़िन्दगी बन कर रह गयी गयी है.!

बस ईश्वर को पा लूँ, यही चाहत और इच्छा है प्रवल मेरी
ध्यान लगाने की, तलाश करने की कोशिश हर वक्त करता हूँ..!
पा लेने को आपमे अंदर विद्यमान उस ईश्वर को,
जो हमारा ही था, पर हम बैठे थे भूल उसे ?

पर कहाँ…?
अब तो सारा ध्यान दर्द की ओर लगा रहता है …………..!
सोचता हूँ कि कहीं यही दर्द ईश्वर बन कर तो साथ नहीं रहता मेरे ?

————————————————————

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"ना बांटो देश को मेरे"

ना बांटो देश को मेरे, यूँ तुम बदनाम लहज़े में ,
मकां है ये हिन्दू का , ये घर भी है मुस्लिम का |
जो कर रहे शाजिश हमारे सब्र की हद की ,
जो टूटा बांध दरिया का , तो सब उनको डूबा देगा ||

यहाँ हिंदी भी बसती है और उर्दू गीत गाती है ,
मेहदी हरी होकर भी रंग लाल पाती है |
ये मेरे देश की मिटटी की ताकत है मेरे दुश्मन ,
की जितना भी हमे तोड़ो, ये हमको फिर जोड़ जाती है ||

—– > कि ये देश ना असहिष्णु था ना होगा कभी,
ये मुल्क ‘बिस्मिल’ का भी था और था ‘अशफ़ाक़’ का भी

——– कवि कौशिक

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पिता

बचपन से एक ही चाहत लिए चला हु ,
आगे चलकर तेरे जैसा बनूँगा ,
चाहे कितना ही ऊँचा क्यों न बन जाऊं,
तेरा कृतज्ञ तो हमेशा रहूँगा ,
अपनी क़ाबलियत पे तुझे तब गर्व होगा ,
जब ख्वाब तेरे होंगे और पूरा मै करूँगा |

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शायरी

बैठे हुए है तेरे रूबरू ऐ ज़िन्दगी ,
तू मंज़िल लिए हुए मै हौसला लिए हुए ||

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शायरी

बगावत कैसी भी हो बेखौफ होनी चाहिए ,
रास्ते कैसे भी हो एक मंज़िल होनी चाहिए ,
वक़्त एक चीज़ जरूर सीखाता है ,
हालात कैसे भी हो कदमताल होनी चाहिए ||

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" वक़्त की हार "

लिखा नहीं है कुछ आसमानो पे ,
फिर भी रोज़ ढूंढता हु अपनी किस्मत इन सितारों में ,
छोड़ रखी है अपनी ख्वाहिशें इन खुली हवाओं में ,
दिक्कतें बहुत लिखी है मंज़िल तक इन राहो ने ,
रोज़ एक नयी जंग लड़के आ रहा हु ,
इस ज़िन्दगी के फलसफे में अपनी ख़ुशी तलाश रहा हु ,
रोज़ हारता हु फिर लड़ता हु ,
जीत की उम्मीद में अपने हौसले को तराश रहा हु ,
एक पल आएगा जबमंज़िल मेरे जूनून और काबिलियत की गुलाम होगी ,
जब मै बेखौफ हसूंगा, वक़्त उस दिन तेरी हार होगी ||

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शायरी

बाटना सीख मुस्कराहट को हर सांस को बोझिल न बना ,
बहना सीख लेहरो की तरह अपने जीवन को स्थिर साहिल न बना ,
माना के संघर्ष आसान नहीं है जीने के लिए ,
थोड़ी सी हिम्मत और दे लेकिन मुझे बुझदिल न बना ||

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शायरी

इंसानियत कही नहीं लेकिन धर्म बहुत है
ज़िन्दगी छोटी सी है लेकिन अरमान बहुत है ,
सोचता हु बढ़ती उम्र के साथ थोड़ी मासूमियत ही बचा लू ,
यहाँ ज़िंदगानी के लिए जगह नहीं लेकिन शमशान बहुत है !!!

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शायरी

माँ की लोरी से अच्छा कोई संगीत नहीं ,
पिता के जीवन से बड़ी कोई सीख नहीं ,
यु तो जंग रोज़ लड़ता हु रिश्तो से मै,
लेकिन माफ़ करने से बड़ी कोई जीत नहीं ||

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शायरी

जब तक ऐब इश्क़ और इबादत कबूल नहीं होते ,
वो कामयाब नहीं होते ||

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अब,रचना डॉ उमेश चमोला

दुनियां में चैन अमन नहीं है अब,
तरसती लाश के लिए कफन
नहीं है अब,
खुदा जाने क्या होगा अब?
शैतान के पाश में
बांध चुके हैं सब.
—–डॉ उमेश चमोला

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शायरी

दिल तड़पता है मेरा प्यार के लिए
किसी की हसरत भरी नज़रों के दीदार के लिए
ऐसे तन्हा यूँ कब तक जिऊंगा मै
कोई अपना तो हो इंतज़ार के लिए

तुम आओगे एक दिन ऐतबार है मुझे
और बात भी क्या है जो इस जहाँ में जी रहे हैं
हैरां न हो ए जिंदगी यूँ तनहा देख कर
ग़मो ने हाथ पकड़ा है जो आज पी रहे हैं।

ख़ुशी की तलाश में ज़िन्दगी गुजर गई
ख्वाबों की तासीर आँखों से खो गई
जीने का सलीका सिखाया था जिसने कभी
वो शबनम भी आज अंगारों की सेज़ हो गई।

…………देवेन्द्र प्रताप वर्मा”विनीत”

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दुविधा

क्या आपको नही लगता ?
कि आजकल हो गई ,
ढेरों सुविधा ने ,
बहुत दुविधा ,
पैदा कर दी है.

टी.वी. पर आ रहे ,
विभिन्न चैनल की सुविधा की ही,
बात लीजिए ,
पहले जब टी. वी. पर मुख्य दो ही ,
प्रोग्राम आते थे ,
वोह थे बृहस्पतवार को चित्रहार ,
और इतवार को हिंदी सिनेमा।
हम उसके इंतजार में ,
बाकी पांच दिन ,
ख़ुशी ख़ुशी काट देते थे।

अब तो टी. वी. पर सैंकड़ों ,
चैनल आते हैं ,
चैनल तो हैं ,
पर चैन नहीं,
क्युंकि हम सारा परिवार ,
एकसाथ बैठ कर कोई एक ,
मनपसंद प्रोग्राम नही देख सकता है।

सिर्फ चैनेल ही क्यों ?
अब तो एक घर मेँ ,
टी.वी. भी अनेक हो गये हैं ,
ताकि हर सदस्य अपने ही ,
कमरे में अपने टी. वी.पर ,
अपने पसंद का चैनल देख सके।

मगर उसमे भी किसी को चैन कहाँ है ?
ऐड आने पर वो दूसरा ,
फिर तीसरा चैनल बदलता है।

क्या आपको नही लगता ?
कि आजकल हो गई ,
ढेरों सुविधा ने ,
बहुत दुविधा ,
पैदा कर दी है.

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शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

“बीटेक के चार वर्ष”

किसी नयी मंजिल की ओर
पहला कदम रखते हुए,
बीटेक की आखिरी सीढ़ियों से
उतरते हुए…
दिल के किसी कोने मे
सपनों के बिछोने मे,
बीते हुए पलों का मधुर संगीत,
किसी पुराने बरगद की
शीतल छाँव की भांति,
अपने साये मे कुछ देर और
ठहर जाने का निवेदन कर रहा है।
और इस निवेदन के प्रकाश मे चमकते,
पिछले चार वर्ष बड़े गर्व से
मेरे जीवन मे अपने वर्चस्व की
व्याख्या कर रहे हैं।।
रिमझिम बरसात है
अभी कल ही की तो बात है।
अपने बस स्टॉप पे खड़े हम लोग,
कॉलेज बस का इंतजार कर रहे हैं;
और रैगिंग पर उठने वाले वाद-विवाद से
रोमांचित हो रहे हैं।
वहीं हुमसे कुछ दूर खड़ा
जाने किस बात पर अड़ा,
सीनियर्स का एक समूह
रह-रह कर चिल्ला रहा है;
और रैगिंग की विभिन्न योजनाए
बना रहा है।
अद्भुत मुलाक़ात है
अभी कल ही की तो बात है।
कॉलेज बस के अंदर
हम लोग जैसे बंदर,
सीनियर्स रूपी मदारी के हाथों की
कठपुतली की भांति कूद रहे हैं;
और जाने अनजाने एक दूसरे
के कानो मे अपनी-अपनी प्रतिभा
के मंत्र फूँक रहे हैं।
वो देखो "हिमांशु" मूँगफली बेच रहा है,
और "मेहदी" गाने गा के सबका
ध्यान खीच रहा है;
परिचय दे देकर "राजकुमार" बेहाल है
सबसे जुदा मगर "कृष्णा" की चाल है ।
चंचल प्रभात है
अभी कल ही की तो बात है।
कॉलेज बस मे गूँजते नारे,
नैनी ब्रिज पर गंगा मैया के जयकारे,
बाहर खड़े लोगों का
ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं;
और उल्लास की आभा मे दमकते चेहरे
अपने आनंद की कहानी कह रहे हैं।
"अनंत जी का जोश
नया गुल खिला रहा है,
सारे चुप हो जाओ
देखो "बाँके लाल" आ रहा है।
क्या अजीब इत्तेफाक़ है
अभी कल ही की तो बात है ।
"वैभव शर्मा" अपने मोटापे से परेशान है,
कहता है योग करो तो
सब मुश्किल आसान है।
"अर्चना" और "पूजा" का
गोल-गप्पे खाने का प्लान है,
पर उन्हे शायद पता नहीं
आज बंद दुकान है ।
मौज मस्ती की सौगात है
अभी कल ही की तो बात है।
किसी क्लास मे कोई टिफिन खुला है
पर ये क्या ! टिफिन जिसका है
उसे खाने को कुछ भी नहीं मिला है।
इधर "अपूर्व" के चुटकुलों का
एक दौर चला है
लगता है अपना पूरा कॉलेज ही चुटकुला है।
"स्वप्निल सर" कह रहे
कि "धीरज" होशियार है,
सब उसकी बात मानो
वो क्लास का सी-आर है।
अब "धीरज" कहेगा,
तभी क्लास मे आएंगे
नहीं तो सारे लोग बँक पे जाएगे।
फ्री पीरियड है
चलो लाइब्रेरी बुला रही है
"अपूर्व"की टोली वहाँ भी
महफिल सजा रही है।
"शुचिता" "रहमान" के
किस्से सुना रही है,
और आलसी अनिल को
नींद आ रही है ।
"उपाध्याय" अपने ज्ञान कुंज से
ज्ञान के कुछ पुष्प लाया है,
और हमारी नीरस निरर्थक वार्ता को
सरस सार्थक बनाया है ।
उधर "हिमांशु" और "दीपिका" मे
हो रही लड़ाई,
"अर्चना" ने "धीरज" को पकड़ा
तो उसकी शामत आयी।
जाने किस विचार मे
डूबें हैं "पवन भाई",
आलू खा कर "इंस्पेक्टर" ने है
खूब धूम मचाई।
Exams आ गए है
अभी तक की नहीं पढ़ाई,
पर सेमेस्टर exams की
परवाह किसको है भाई!
हम तो चले चाचा की
गुमटी के तले,
जिनको है परवाह
वो हमारे हिस्से का भी पढ़े।
हम तो exams से एक दिन पहले
किताब खरीदने जाएगे
मिल गयी तो ठीक है
नहीं तो तक़दीर आजमाएगे ।
महके हुए जज़्बात हैं
अभी कल ही कि तो बात है ………
"वैभव" "सुमित" और "तृप्ति" अपने
रिश्ते को एक नया नाम दे रहे हैं,
और अपनी दोस्ती को
एक नया आयाम दे रहे है।
निधि ने अपनी क्लास मे
एक मंच सजाया है
जहां सब ने सब की खातिर
कोई गीत गुनगुनाया है।
ये गीत ही कल प्रीत की
प्रभा मे काम आएंगे।
और रूठे हुए अपने
मनमीत को मनाएगे।
और और रूठे हुए अपने
मनमीत को मनाएगे।।

———देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

स्मृतियाँ-यह कविता कॉलेज के आखिरी दिन की भावनाओं से प्रेरित है जब हम मित्रगण एक साथ कॉलेज मे चार साल गुजारे पलों को याद करते एक दूसरे से विदा ले रहे थे ।

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"आजकल "

होती किस्मत मेरी इन सितारों में,
तो देह मेरा पार्थिव न होता ,
डर बिकता है इन बाज़ारो में इसलिए ,
क्यूंकि मुस्कराहट का आजकल व्यापार नहीं होता ||

अगर आंकलन होता सिर्फ लिबाज़ से मेरा,
तो कफ़न का रंग कभी सफ़ेद न होता ,
बन रहा बनावटी हर चेहरा यहाँ इसलिए ,
क्यूंकि सादगी का आजकल प्रचार नहीं होता ||

होती अगर मेहर तेरी हर एक बन्दे पे ,
तो तेरे द्वार पे मैँ भूखा नहीं सोता,
सियासत होती है रोटी पे इसलिए ,
क्यूंकि गरीबी का आजकल धर्म नहीं होता ||

अगर होता इश्क़ आसान मेरे यार,
तो हीर-राँझा लैला-मजनू का चर्चा नहीं होता ,
बदल रहा हु अपना प्यार हर दिन अब इसलिए ,
क्यूंकि मोहब्बत में आजकल सब्र नहीं होता ||

अगर ले कर जा सकता धन दौलत साथ में ,,
तो मेरा कभी कोई उत्तराधिकार न होता ,
झूठ जीत रहा हर जंग यहाँ इसलिए ,
क्यूंकि सच के साथ आजकल इन्साफ नहीं होता ||

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अब अपने घर मे शोचालय बनवाले

मेरी विनती को आज मानव तु अपना लें,
मर्यादा, लाज, शर्म को ढलने से बताले,
अब अपने घर मे शोचालय बनवाले! देश शर्म से झुक रहा है, मानव का मे तुल रहा है! अपने देश के आशीयानों की तु लाज बचाले!
अब अपने घर मे शोचालय बनवाले! बहु बेटियों की आशाऔ पर, लाज शर्म की परिभाषाओ पर! नारी का सम्मान बडा लें!
अब अपने घर शोचालय बनवालें! नारी को इज्जत कहते है, दिन रात घुघंट में रखते है!
कहा जाती ये बाते जब वह डिब्बा लेकर जाती है!
अपनी मर्यादा को डिब्बे मे ना ढलने दे
अब अपने घर ………. पहला सुख निरोगी काया, अब यह तो दिखने में छाया,
खुले में मल जाने से, आज तक ना पनप पाया है!
आज तु इसको आजमा लें! अब अपने … …….
सरकार ने अभियान चलाया, मेहन्दुरिया का नाम भी आया!
घरघर जन-जागृती कर, स्वच्छता का दीप जलाया!
आज आपकी बारी है स्वच्छता अपना लें!
अब अपने …….
आज हमारी आशाओ पर, स्वच्छता की परिभाषाओ पर!
खुले में ना हो मल त्याग, बिमारियो का होगा त्याग!
स्वच्छता का दीप जलाकर अब ODF करवा लें
अब अपने घर शोचालय बनवाले!

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ek mulaqat

dekha tha jab usko pehli dafa
pareshan si thi, thi thodi khafa

mausam us din kuchh ashiqana sa tha
barish ki boondein thi rukne ka bahana sa tha

kinare khadi thi shayad tha kisika intezaar
us aasmaan ki pari se mujhe ho gaya tha pyaar

bheegi si zulfe uske gaalo ko chumti thi
sehmi si aankhein jane kisko dhundhti thi

chhoti si naak thi masum sa chehra tha
un khubsurat labon pe khamoshi ka pehra tha

aage badhe ham thoda ab unke kareeb the
unhone dekha hamein ham khushnaseeb the

hamein dekh apne paas wo haule se muskaai
hamne bhi jawab mein apni palkein jhukaai

kehna tha bahut par lafzon ne sath na diya
chhut gaya waqt hamse kismat ne hath na diya

tezi se ek sawari aakar unke samne ruki
dekha unhone hamein or adab se jhuki

unki sawari ja chuki thi ham wahin khade nihaarte rahe
us ek mulaqat ki yaadein hamare khwabon ko sanwaarte rahe…..

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वीरप्पन

ऐसा था उसका जीवन !
नाम था उसका वीरपन्न !
एेसा था उसका जीवन !
गरीबो के प्रति था अपना पन !
याद करका है जन जन !
ऐसा था उस का…………..!
शुरू हुआ उसका जीवन ,मुख मरी से तोडा माँ नें दम !
दवाई के लिए पैसे ना थे , खाने के लिए ना था अन्न !
एेसा था ……………………….!
14 वर्ष की आयु थी , बात यह पुरानी थी !
पैसा की जरूरत थी , कैसे बजाये पैसो की खनखन !
ऐसा …………… . ……….!
फिर एक चक्कर चलाया , दो हाथी मार गिराया !
बाजार में बेच आया ,कुछ पैसे ले आया !
कुछ रखा कुछ गरीबो मे बाट आया ,इतना ही था उसके पास धन !
ऐसा …………………………….!
मन में जोस था , ईश्वर दोस्त था !
जीवन भी जीना था , वन मे ही रहना था !
हाथ मे उठा ली गन !
ऐसा ……………………………!
उमर की बडती कतार ,कर रहा हाथ दांत का व्यापार !
मन में था गरीबो के प्रति प्यार , करने लगा चन्दन व्यापार !
जहां रहता वहां था वन !
ऐसा …………………………..!
जीवन से ना गबराया , मन्त्री क्या खन्त्री भी आया !
उसने बडे बडे नेता को मार गिराया !
कभी बन्दी बनाया तो , कभी छोड आया !
उसको चाहिये धन !
ऐसा……………………………………!
उसने मन्त्री खन्त्री को डराया , राज कुमार अभिनेता को ले आया !
कई वन रक्षक रो मार गिराया , लूट लिया इस माटी का धन !
ऐसा ………………………….!
सरकार मन्त्री ने चक्कर चलाया , एक बडा गिरोह बनाया !
देख मोका उसे मार गिराया , उसकी आंखो मे था मोतियाबिन्द !
ऐसा ………………………………!
उसमें एक बात अच्छी थी , मुह पर बडी बडी मुछै थी !
उसका एक कसुर था , क्योकी वो गरीब था !
उसके जीवन का हो गया अन्त !
ऐसा था उसका जीवन , नाम था उसका वीरप्पन !

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मुसाफिर

हम सब मुसाफिर है जिंदगी की राहो के
हँसते – रोते यंहा तुफानो से टकराना है!
!
निकले है पाने को आशाओ के नजराने
मंजिल के बहाने मौत को गले लगाना है !!

!
!
!
@___डी. के. निवातियाँ ___@

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दूरियाँ...।।।

दो बेजान शख्सियत की दूरी मापने की इकाई है.., पर दिलों के बीच फसलों का क्या,
भाप लेते हैं सागर की दूरियां
पर जेहऩ में दूरी की गहराइयों का क्या??

हौसले भी हैं, नसीब की दरकार भी
लगन की जन्नत है; कामयाबी की फरियाद भी 
हर शख्स जाने खुद को कुछ इस तरह…
“खूदा भी खिदमत हो, सूने उनकी गुहार भी!! 
इन सभी के दलदल मे, फसें उन आसूओं का क्या??
इनके जिद में छुपे , उस त्याग के जहन्नुम का क्या ??
हौसला किसी का कम नहीं है..
” पर हौसलौं और गूरुर की कम होती दूरियों का क्या??”

करीब हो चुके आखिरी तख्त पर 
ख्ळाहिशों के हकीकत की तब्दीली पर…
दूरियाँ अब कम होनी थी ममता से,
पर अब उन ममता के आंचल में बरसते उन अंगारों का क्या???
चले गए बहुत ऊपर .. तारों के आशियानों पर
करीबीयों के कुछ कुर्बानियों पर..
दे दिया तुमने उन्हें अपना नजऱाना
पर उस राह में फसें उन मुसाफिरों का क्या???

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गुरुवार, 26 नवंबर 2015

दुआ

जब कर्म और फल की प्राचीन परम्परा ने अपना जाल फेंका,
तो एक रात सरकारी अस्पताल के बाहर फूटपाथ से मैंने चाँद को देखा।
बादलों की गिरफ्त से छूट कर वह अभी अभी निकला था,
और पहले से अधिक चमकीला और उजला था।

इससे पहले मैंने कभी उसे ऐसे नहीं माना था,
बस आकाश में घूमता एक खगोलीय पिंड ही जाना था।

अब चन्द पल मुश्किलों के उसके साथ बांटता हूँ,
और किसी अपने की सलामती की दुआ मांगता हूँ।
……………..देवेन्द्र प्रताप वर्मा”विनीत”

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"किश्त "

अपने उसूलो पे ज़िन्दगी बसर कर ,
इन सामाजिक रीतियों में तेरी मासूमियत घट न जाए ,
अपनाना आसान होता है बुराइओं को सभी ,
कही ज़िन्दगी के किस्सों में इंसानियत की किश्त कम न पड़ जाए ||

अपनों के बीच मुस्कान बाँट लो ,
मुश्किल हालात सिर्फ तन्हाई मे न कट जाए ,
मिलने के लिए मौको की तलाश न करो ,
कही ज़िंदगी के रिश्तो में वक़्त की किश्त कम न पड़ जाए ||

हार जाओ खुदको किसी की खातिर ,
अपने अभिमान से कही एक आशियाना बिखर न जाए ,
वफ़ा से ही तो ज़िन्दगी खूबसूरत बनती है ,
कही मोहब्बत के सफर में वादो की किश्त कम न पड़ जाए ||

आँखों ने देखे है अरमान हज़ारो ,
ये सिर्फ रात के सपनो में न सिमट के रह जाए ,
लड़ रहा हु हर प्रतिकूलता से मैं यहाँ ,
कही मंज़िल के रास्तो में हिम्मत की किश्त कम न पड़ जाए ||

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कुछ तो शर्म करो ......

रचना बड़ी अवश्य है, कृपया दो मिनट का समय देकर जरूर पढ़े औए अपने विचार व्यक्त करे !!

पहले लोग मिसाल देते थे गरीबी में दाल रोटी की
रोटी आज मुश्किल में है दाल ने दामन छुड़ा लिया !
टमाटर दिखाता है वक़्त बे वक़्त अपने तेवर लाल
महंगाई में अबकी प्याज ने जी भर के रुला दिया !
अमीरो के लिए गाडी बंगले सस्ते होते हर बजट में
टैक्स में देकर भरी छूट उनको राहत दिला दिया !
आम आदमी आते है अक्सर महंगाई की चपेट में
गरीबो का सब्जी से रोटी खाना मुहाल करा दिया !
एक कर कुछ रुपया जोड़ा था मुश्किल से गरीब ने
कमबख़्तो ने बहकाकर वो भी जमा करा लिया !
खुद रहते बंगले गाडी में पहनकर लाखो के सूटबूट
किसानो के गले में फांसी का फन्दा लटका दिया !
भूल गए पूर्वजो के बलिदान को उन्होंने कुछ किया ही नही
देकर जनता बीच नारे बड़े बड़े मुदा विकास का बना लिया !
लगाते है इंसानी जान की कीमत चंद कागज़ के टुकड़ो में
वतन पे मरने वालो को एक राजनितिक मोहरा बना लिया !
अरे कुछ तो शर्म करो पावन धरा के ईमानदार नेताओ
आजादी के परवानो को सियासत का हिस्सा बना दिया !
गांधी, पटेल, सुभाष, आजाद, मौलाना, भगत, टैगोर,मंगल
आंबेडकर, अशफाक, बिस्मिल जैसे कितनो ने जीवन त्याग दिया
भूल गए क्यों तुम जिनकी कुर्बानी उन्हें भी जाति धर्म बाट लिया !
अब तो छोड़ो ये दलगत राजनीति, देश धर्म का ध्यान करो
दुनिया की आँख का तारा बने अपना देश ऐसा विचार करो
सुन लो देश के नेताओ क्या तुमने खुद कभी कुछ छोड़ा है
देकर एक दूजे को गाली सदा जनता का माल खसोटा है !
घास फूंस, खाद उर्वरक, डीज़ल पेट्रोल, कोयला, बिज़ली
किस किस की बात करे जवानो के ताबूतों तक को लूटा है !
मत लो इम्तहान सब्र का देश के गरीब और किसानो का
तुम्हारी जान बचाने वाले सीमा पर जान गवांते जवानो का !
न रहना इस नासमझी में की भारत माता के वीर रहे नहीं
हवा न दो ऐसी चिंगारी को जिससे अछूता कोई बचे नहीं !
तपस्या प्रेम के हम पुजारी शांति के हम दूत कहलाते है
हम उस देश के वासी है जहां पत्थर भी दूध से नहाते है !
!
अंत में बस इतना सुन लो अपनी ओकात में आ जाओ
देश मेरा है दुनिया में अनूठा, इसकी शान मत गँवाओ !!
!
जय हिन्द , जय भारत, …..!!
!
डी. के. निवातियाँ ………….!!

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नारी और विश्व की प्रगति और नर चेतना

नारी और विश्व की प्रगति और नर चेतना–संतोष गुलाटी

नर को मानना पड़ेगा
नारी दुर्गा, सरस्वती और लक्ष्मी का रूप है
नारी की प्रगति के बिना
विश्व की प्रगति संभव नहीं
नारी बचपन से ही जागरूक है
सब कर्तव्यों को निभाती है
अपने अधिकारों की माँग करती है
वह कभी भी सोई नहीं
नर चेतना सोई रहती है
क्षत्राणी कभी भी सोई नहीं
विदेशी ताकत से लड़ती रही
पुरुष को चेतना जागरण का संदेश देती है
धुरी के बिना पहिया चल नहीं सकता
नारी की प्रगति के बगैर
कोई राष्ट्र प्रगति कर नहीं सकता
ज़रूरत है नर को नारी को जानने की
वैसे नर को सब पता है
लेकिन वह अनजान बनता है
नारी जब विशेष कुछ करती है
नर में हीनता का भाव जाग पड़ता है
नारी शिखर पर न पहुँच जाए
नर ने ऐसी सौगधं खाई है
उसकी प्रगति में रोड़े अटकाना
अपना शान समझता है
जब परिस्थिती बेकाबू हो जाय
वह तब अपनी लगाम
नारी के हाथ थमा देता है
शिव जब महिषासुर को न मार सके
उसको मारने के अधिकार दुर्गा को दे दिए
पापी का नाश किया
नारी के साथ काम करना
उसकी शान के ख़िलाफ है
क्योंकि वह अधिक शक्तिशाली है
पत्नि उससे अधिक कमाए
या अपने कार्य सुचारू ढंग से करे
वह सर्वदा टाँग अड़ाता है
नारी कठपुतली बन कर रहे तो ठीक
शेरनी बन जाए तो वह उसके विपरीत
बराबरी का अधिकार स्वीकार नहीं
नारी में क्या-क्या शक्तियाँ हैं
अभी तक उस से अनभिज्ञ बनता है
नर की चेतना जागृत करना आवश्यक है
जब भी नारी आवाज़ उठाती है
नर की रूह काँप जाती है
नारी की कोख़ उसको कमज़ोर बना देती है
हे जननी ! धातृ ! नर की चेतना को जगाओ
अपने अधिकारों के लिए युद्ध जारी रखो
विश्वास रखो एक दिन कामयाबी ज़रूर मिलेगी
नर को नारी के कर्तव्य बताने की ज़रूरत नहीं
एक बार नर नारी की ज़िंदगी जी के तो देखे
अपने मर्द होने का घमंड लुप्त हो जाएगा
नारी केवल भोग की वस्तु नहीं
वह अबला नहीं चंडी, सहनशीलता की प्रतिमा है
नारी का सदा सम्मान होना चाहिए।
नारी भी नर के बिना अधूरी है
संसार को चलाने के लिए
दोनो का साथ में चलना ज़रूरी है ।
नर की चेतना को जागृत करना ज़रूरी है ।।

संतोष गुलाटी

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"माँ"

तू वह नीव ह जिसपे आज मेरी मुस्कराहट कड़ी ह ,
तू वह आँख ह जिससे मैने सपने देखे ह ,
तू वह उम्मीद ह जिसपे आज मेरे हौसले खड़े ह ,
तू वह वक़्त ह जो मझे सिर्फ बचपन दिखाता ह !!!!

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बचपन

बचपन

यह कैसा था बचपन
बस खेलना और खाना
कभी पेड़ पर चढ़ना
तो कभी नदी में कूद जाना
कभी यह न सोचना
कि माँ को कभी न सताना
कितनी आज़ादी कितनी मस्ती
कितनी जोश भरी ज़िंदगी
अब बुढ़ापा क्या आया है
बचपन की याद सताने लगी है
अब बचपन की हरकते करना
अपने को मूर्ख कहलाना है
पता ही नहीं चला
बचपन आया और चला गया
मैं कब और कैसे बड़ा हो गया
अगर पता होता
कि बचपन लौट कर नहीं आता
तो थोड़ी मस्ती ओर कर लेता
बचपन का मज़ा जाने ही नहीं देता
मुझे तब पता चला
कि मैं बड़ा हो गया हूँ
जब पिताजी ने एक दिन कहा
सलीके से बात करना सीखो
क्योंकि बचपन बीत गया है
और मैं अब बड़ा हो गया हूँ ।

संतोष गुलाटी——–

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वक्त

राह चलते चलते रहनुमा बदल गये !
मंजिल का पता नही, रास्ते बदल गये……!
वक्त क्या बदला दोस्तो, कस्तियाँ तो वही रही किनारे बदल गये…….!

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वक्त

राह चलते चलते रहनुमा बदल गये !
मंजिल का पता नही,रास्ते बदल गये ……!
वक्त क्या बदला दोस्तो,
कस्तियाँ तो वही रही ,किनारे बदल गये……..!

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विनीत मन -हाइकू

घर आओगे
उसने पूछा नहीं
कुछ बात है।

गुमसुम सी
केश खुले-बिखरे
हां नाराज़ है।

स्नेह की कली
विरह के नभ की
धूप में खिली।

मुरझाई सी
ह्रदय से लिपट
हरी हो गई।

अनुपम है
रूठने मनाने में
जो मिठास है।

बिखरे हुए
सुर मृदुभाव के
लय बद्ध हैं।

“विनीत”मन
गीत रच प्रेम के
करबद्ध है।
….देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

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बुधवार, 25 नवंबर 2015

ज़िन्दगी

काबिलियत तब धोखा देती है ,
जब मुझे खुद पर यकीन नहीं होता ,
ज़िन्दगी तो एक अनकही कहानी है ,
यहाँ हर रात काली हर सवेरा रंगीन नहीं होता ||

होसलो से अपने उम्मीद न खोना ,
मेरे हर कर्म का मालिक मेरा मुकद्दर नहीं होता ,
ज़िन्दगी तो हर पल नया मौका देती है ,
एक हार से कोई ऊसर एक जीत से कोई सिकंदर नहीं होता ||

कभी अछ्छाई से अनभिज्ञ न होना ,
बेच उसूलो को किसी का उत्थान नहीं होता
ज़िन्दगी तो सिर्फ मानवता धर्म सिखाती है ,
एक दोष से कोई रावण एक दया से कोई राम नहीं होता ||

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आओ कुछ ऐसा कर जायेँ

aao kuch aisa kar jaye.
duniya ki divaro par apna naam likh jaye.
or jaye is jaha se tab
amavasya ka chand bhi hume dakhne ke liye aa jaye.

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सोरठा । सज्जन और दुर्जन के प्रति ।

सोरठा । सज्जन और दुर्जन के प्रति ।

प्रेम वचन निःस्वार्थ, भरे दुःखित पर हृदय जे ।
करें ज्ञान विस्तार, सज्जन रूप प्रतीत ते ।।

द्वेष, द्रोह शुचि बीच, वाणी बरसे घृत गरल ।
ते दुर्जन सम जान, भरे कुटिल व्यंग्योक्ति दुःख ।।

@राम केश मिश्र

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"रणभेरी"-उत्साह गीत

बज उठी समय की रण-भेरी
अब रण कौशल की बारी है,
हार मिले या जीत मिले
कर्तव्य प्रथा ही प्यारी है।
साहस किसमे है कितना
किसमे कितना विश्वास भरा,
इस महासमर मे उठती
प्रश्नो की पावन चिंगारी है।
प्रतिभाओं के सूर्य कई हैं
कई सितारों के साथी,
आगे बढ़ पाऊँगा कैसे
जुगनुओं का मै बाराती ,
अपने महिमा मंडन को
बहुत किया है व्यर्थ प्रलाप,
सार्थक करने सार्थकता को
करना होगा "वार्तालाप" ।
है “असमंजस” मे चित्त मेरा
चिंता मे चित न हो जाऊँ ,
“हल्ला बोलूँ” किस कौशल से

किस कौशल से सम्मुख आऊँ ।
है “प्रस्तुति” परमार्थ की
परमार्थ इसका पूर्ण है,
शील साहस धैर्य से
अब मन मेरा सम्पूर्ण है।
साथ लिए टिम टिम जुगनू की
मै आगे बढ़ता जाता हूँ,
लौ निचोड़ अपनी सारी
मै सूरज से टकराता हूँ।
बुद्धि विवेक का अवलोकन हो
या प्रश्नो का हो प्रहार,
अति-विनीत हो सबका मै
प्रत्युत्तर देता जाता हूँ।
तन्मयता की ऐसी छवि पर
सोच मे पड़ा विधाता है,
मैंने लक्ष्य को साधा है
या लक्ष्य ने मुझको साधा है।
हार हो या जीत हो
बस युद्ध करने का जुनून है,
जब तक रहूँ मर्यादित रहूँ
फिर बिखर जाऊँ शुकून है।
है “अपूर्व” “शोभित” “अनंत”
इस महासमर की कांति किरण,
चहुंदिश चंचल चातुर्य लिए
स्वच्छंद विचरता ख्याति हिरण।
उस “बागेश्वर” की बाग के
हम “पल्लव” हैं “प्रतीक” हैं,
“अभिषेक” कर प्रकाश से
जिसने दिया सादर शरण ॥
….देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

स्मृतिया- यह कविता मेरे कालेज के एक वार्षिक techincal festival “Enigma-2008” से प्रेरित है जिसमे उस वर्ष विभिन प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था जैसे-“वार्तालाप”,”असमंजस”,”प्रस्तुति”व”हल्ला बोल”।अपूर्व,शोभित,वागेश्वर,प्रतीक,अनंत व अभिषेक आदि इस वार्षिक प्रतियोगिता के आयोजक मण्डल के सदस्य थे। यह कविता मेरे सभी मित्रों एवं आयोजक मण्डल के सम्मानित सदस्यों को समर्पित है।

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मुक्तक । सम्मान के प्रति।

मुक्तक। सम्मान के प्रति ।

घूँट अपमानों की पीता जी रहा इंसान है ।
दम्भ, घृणा, ईर्ष्या है, खोखला अभिमान है ।
देखकर गहरी परत ये मान पर अपमान की ,
बैठ कोने में कहीँ अब रो रहा सम्मान है ।।

@राम केश मिश्र

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ग़ज़ल । जलाना तो पड़ेगा ही ।

।ग़ज़ल। जलाना तो पड़ेगा ही ।।

लिखा तकदीर ने बरबस बिताना तो पड़ेगा ही ।
गमो का लुफ़्त जीवन में उठाना तो पड़ेगा ही ।

भले मरहम लगाकर ये दुनिया हौसला दे दे ।।
अग़र है जख़्म गहरा तो छुपाना तो पड़ेगा ही ।

नही नाराज़गी खुद से शिक़ायत है नही गम से ।
रहे नारज फिर भी ख़ुश दिखाना तो पड़ेगा ही ।

मिला जो इश्क़ में हमसे वही क़ातिल मेरा ठहरा ।
मग़र वादों का है बन्धन निभाना तो पड़ेगा ही ।।

मिलेगी हार मालुम है किसी शाजिस से ही मुझको ।
मग़र दिल की तमन्ना है जलाना तो पड़ेगा ही ।

बिखर कर टूट जाये दिल शिकायत से मिलेगा क्या ।
छुपाकर अश्क़ आँखों में मुस्कुराना तो पड़ेगा ही ।।

“रकमिश”सोच लेना तुम मिलेगी उम्र न फिर से ।
मिली ये जिंदगी -दौलत लुटाना तो पड़ेगा ही ।।

@राम केश मिश्र

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तुम्हारे ही खातिर है हम-गज़ल

जिस राह पे तुमने रखा कदम है,
उस राह के भी मुसाफिर हैं हम।

अपनी वफा के काबिल तो समझिए,
उम्र भर साथ चलने को हाजिर हैं हम।

तन्हा सफर जल्दी कटता नहीं है
हवाओं का रुख यूं बदलता नहीं है,
खुदा ने मेरे बस यही है कहा
हर सफर मे तुम्हारे ही खातिर हैं हम।

साथ दोगे हमारा तो एहसान होगा
तुम्हारी मोहब्बत मेरा ईमान होगा,
छोड़ दो मुझको तन्हा या आबाद कर दो
हर सितम आज सहने को हाजिर हैं हम।

बातें नही ये दिल के बेचैन से जज़्बात हैं
मुद्दत से हसरतों की तन्हाइयों के साथ है,
अब तो कोई बंदगी का रहनुमा मिले
जमाने की नजर मे कब से काफिर हैं हम॥
…………..देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

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शायरी

खूब कोशिश कि तुझे कलम मे समेटने कि,
लिखते लिखते ये स्याही अपना असर खोती रही,
जिदंगी जीने के लिए जरूरत थी बहाने की,
बस तु मुस्कुराती रही हमारी बसर होती रही

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Teri Baahi Mein

Teri baaho mein meri kabhi karwatein hongi,
Chaadaro pe kuch un-kahi silvatein hongi..
Teri rengti ungliyo se kuch shararatein hongi,
Chandni raato main shuru kayi mohabbatein hongi..
Ugte sooraj ki halki garmi mein,
Badalti kayi aashayein hongi..
Mausam ke badalne ke darmiyan,
Boht si un-suni baatein hongi..
Dhalti-badhti umr ke saath,
Parwaan apni chahatein hongi..
Teri baaho mein meri kabhi karwatein hongi,
Chaadaro pe kuch un-kahi silvatein hongi…

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Socha Na Tha

Waqt itna zaalim ho jaega, ye socha na tha.
Chand rasmo ke baad yeh ishq fanaa ho jaega, socha na tha..
Kehkar gaya tha wo ki laut aega.
Haatho ki lakeero se kisi aur ka ho jaega,
Kabhi ye socha hi na tha..

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Kafir Hone Ka Naam

Kya waqt aaya he…
Har shaqsh kisi na kisi samander me samaya he,
Kash koi dariya hume bhi mil jata…
Jiski gheraiyo ko dhundhne hum nikal padte…
Ishq ka fitoor na sahi,
Kafir hone ka naam to mil jata….

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