रविवार, 31 जनवरी 2016

महबूब

मेरी जो मह्बूब है फूल वो गुलाब है,
मै तो हू बस एक काटा,पर कांटो से उसे प्यार है
वो कह्ती है,जो तू न होता मेरी क्या औकात है,
हर आने-जाने वाला मुझे मसलता,तू ही तो मेरा पहरेदार है

कभी मै सोचू वो कमल है,जो कीचड मे भी पाक है
मै तो हू बस गन्दा कीचड,पर कीचड से उसे प्यार है
वो कहती,औरो के लिए तू कीचड होगा,मेरा तू आधार है
तुम बिन मै कही रह न पाऊँ,तू मेरा घर सन्सार है.

कभी है वो रात की रानी,जो महके सारी रात है
मै तो हू बस घोर अन्धेरा,पर अन्धियारो से उसे प्यार है
वो कह्ती औरो के लिए तू होगा अन्धेरा,मेरा तो तू साथी है
रातो को जब सब सो जाए,बस तू ही मेरा हमराही है

अब क्या कहु उसके बारे मे,वो तो छूई-मुई सी है
कोई भी छू ले तो शर्मा के मुरझा जाती है
वो कह्ती है,तु तो है पवन का झोका,तुझसे क्या शर्माना है
तु तो मेरे अंग -अंग मे बसता,जब तु मुझको छू जाता है

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और हम लौट आए

निकले थे घर से घूमने,
मगर दिल को घुमा न पाए l
और हम लौट आए ——-

इंडिया गेट देख रहे थे लोग,
पढ़ रहे थे, कब बना और किस ने बनबाया l
एक तरफ़ शिवाजी का पुतला,
तो दूसरी तरफ़ पांच सितारा ताज l
बो सितारे भी टिमटिमा न पाए ll
और हम लौट आए ——-

मेरिन ड्राइव में देखा,
दोस्तों को एक दूसरे में समाते हुए l
जिन्दगी का मज़ा लुटते रंग जमाते हुए l
हम तन्हा रंग जमा न पाए ll
और हम लौट आए ——-

थोड़ी सी रेत और लाखों की भीड़ जुहू चुपपाटी में l
नहाते दीखे नसीन जलबे कपड़ों कि कमी में l
बो नगे बदन भी आँखों में समां न पाए ll
और हम लौट आए ——-
नया गाँव नया नहीं,
खंडाला में खण्डहर कहाँ l
असिल्वर्ल्ड के झूले भी हमें झुला न पाए ll
और हम लौट आए ——-

बान्द्रा,शांताक्रूज में अंवार है,
फ़िल्मी सितारों का l
जिनकी एक झलक पाने के लिए दीवानी हे दुनियां l
बह सितारे भी पर्दे वाली चमक दिखा न पाए ll
और हम लौट आए ——-

यूँ तो तारामंडल में नींद आ गई थी हमें l
खवाव भी देखे हम ने पल भर के लिए,
उस झूठी रात में भी कम्वख्त को भुला न पाए ll
और हम लौट आए ——-

रात की रौशनी में वाकये,
अच्छा लगता है यह शहर l
देखना चाहते थे बहकती हुई दुनियां l
बिन साथी डिस्को जा न पाए ll
और हम लौट आए ——-

अपना शहर अपने लोग सब कुछ जाना पह्चाना l
हकीकत में वदलेगे खवाव जब साथ देगा ज़माना l
यह सच्चाई झूठला न पाए ll
और हम लौट आए ——-

संजीव कालिया

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मुठी भर धूप

हम भटकते ही रहे अन्धेरों की गुफाओ में,
यहाँ नहीं पहुँच पाई, उजालें की किरण चाह कर भी l
या शायद हम ने नहीं देखना चाहा उजाला l
हम डरते ही रहे, कि कही चुधिया न जाए हमारी आँखे l
इस लिए हम ने लालच को हावी होने दिया खुद पर,
और विकने दिया अपना ईमान l

ग़र हमें प्रबेश करना है नई सदी में,
तो दफ़न करना होगा लोभ को इसी गुफ़ा में,
और करना होगा एक सुराख़ l
ताकि भुलाया जा सके अतीत के काले अँधेरे को,
और जगमगाया जा सके हमारे आज को,
क्यों कि इसी से वाव्स्था है हमारा आने बाला कल l

ग़र नहीं हुआ सुराख़ तो कल काल बन जाएगा l
यह मगरमच्छ हमें जिन्दा निगल जाएगा l
हमें बनना है जुगनू और छोड़नी है छाप l
सिर्फ नेकी और ईमान से बनेगी अपनी बात l
आओ लोभ के बादल को दूर करने का यत्तन करें l
और अंधेरों से कोसों दूर मुठी भर धूप तले,
खिले खिले उज्जवल समाज का गठन करे ll

संजीव कालिया

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रंगत इंसान के ||ग़ज़ल||

किसे पता कितने रूप है बेईमान के |
पैसा देख बदलती है रंगत इंसान के |

यहाँ पैसा ही सबकुछ नहीं , बात मानो ,
कीमत तय न करो अपने ईमान के |

डर लगता है सुनसान गलियों से गुजरना ,
मुश्किल है पहचान पाना चेहरा शैतान के |

माना की आज़ादी है बोलने की यहाँ ,
पर कुछ भी न बोलो सीना तान के |

धर्म ,जाति ,भाषा को लेकर न करो फसाद ,
आओ सपना सकार करे हम हिन्दुस्तान के |

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हँस ले ऐ मुसाफ़िर

रोना नहीं मेरे दोस्तों,
हमें हँसना है और हँसाना है l
भले ही लाख गम आए हमारी राहों में,
हर पल जशन मनाना है ll
रोना नहीं मेरे दोस्तों ———

ग़म के धिमक को हावी न होने देना,
कर देगा तुम को अन्दर से खोखला l
किसी और दिल को उजाड़ न पाए यह धिमक,
इस धिमक को मार गिराना है ll
रोना नहीं मेरे दोस्तों ———

छोड़ दो ऐसे रेत के मकान बनाने,
जो पल में ढह जाए l
पोंछ दो ऐसे आंसू जो जूही वह जाए l
जिन्दगी मिली है मुश्किल से, मज़ा लूटो !
आज में जिओ आज का ज़माना है ll
रोना नहीं मेरे दोस्तों ———

ऊपर उठना होगा गहरे वहते दरिया से,
और जीना होगा अपने लिए,
अपने अपनों के लिए l
यूँ ही नहीं छोड़ेगे यह उजड़ा चमन,
इसे फिर से बसना है ll
रोना नहीं मेरे दोस्तों ———

यूँ ही कुरेद कर चला जाए,
कोई हमारे जख्मों को
यह हमें गवारा नहीं l
तू नहीं तो कोई और सही,
और नहीं तो कोई और सही l
ग़म देने वालो को यह सवक सिखाना है ll
रोना नहीं मेरे दोस्तों ———

संजीव कालिया

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रंगत इंसान के ! ||ग़ज़ल ||

किसे पता कितने रूप है बेईमान के |
पैसा देख बदलती है रंगत इंसान के |

यहाँ पैसा ही सबकुछ नहीं , बात मानो ,
कीमत तय न करो अपने ईमान के |

डर लगता है सुनसान गलियों से गुजरना ,
मुश्किल है पहचान पाना चेहरा शैतान के |

माना की आज़ादी है बोलने की यहाँ ,
पर कुछ भी न बोलो सीना तान के |

धर्म ,जाति ,भाषा को लेकर न करो फसाद ,
आओ सपना सकार करे हम हिन्दुस्तान के |

Dushyant kumar patel

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सर्वोत्तम हूँ मैं

सर्वोतम हूँ में

इस दौड़ में
जानवर हो गया इन्सान
भले बुरे की छोड़ पहचान
हो गया हूँ महान

सर्वोतम हूँ में
इस दौड़ में
दुसरो को नीचा दिखाता गया
खुद का परचम लहराता गया
दिल को बहलाता गया

सर्वोतम हूँ में
इस दौड़ में
नशे में चूर हो गया था मय के
भूल गया था मायने भय के
बस दौड़े जा रहा था

सर्वोतम हूँ में
इस दौड़ में
कुछ अपने थे जो समझाते रहे
मेरे जहन से रुकावट समझ बहते रहे
वो फिर भी अपना कहते रहे

सर्वोतम हूँ में
इस दौड़ में
सर्वोतम हूँ में
इस दौड़ में

सर्वोतम हूँ में
इस दौड़ में

#
सर्वोतम की होड़ में
मंजिल पर अकेला होगा तू
दुनिया छोटी आएगी नजर
कोई बराबरी को नहीं होगा बेशक

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गरूर तो होगा...

हम गुमनाम फरिस्ते हैं, वो मसहूर-ए-हुस्न है,
ज़ाहिर है “इंदर” उसे खुद पे गरूर तो होगा…

Acct- इंदर भोले नाथ..

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"लल्ला"......इंदर भोले नाथ ...

“लल्ला”

उस दिन इंटरव्यू के लिए जाना था अमन को, किसी कंपनी से कॉल आया था ! जल्दी से तैयार होकर वो स्टेशन पहुँचा, अभी १५-२० मिनट का समय था, लोकल ट्रेन के आने मे….!
टिकेट लेके अमन वेटिंग रूम मे बैठकर ट्रेन का इंतेज़ार करने लगा ! तभी एक मासूम सा बच्चा जिसकी उम्र यही कोई ६-७ साल की होगी,फटा सा कमीज़ पहने वेटिंग रूम मे आकर लोगों के आगे चन्द सिक्कों के लिए हाथ फैलाने लगा ! या यूँ कहे के भीख माँग रहा था,
कोई उसपे ध्यान नही देता तो कोई दुत्कार देता या गलियाँ दे कर भगा देता था ! फिर भी वो बच्चा हर अगले के सामने हाथ फैला देता था ! किसी ने २-४ रुपये दिए भी थे….क्योंकि चन्द सिक्के उसके हाथों मे दिख रहे थे ! यूँ ही माँगते हुए वो अमन के पास आया, और उसके पैर छू के उससे पैसे माँगने लगा ! अमन ने उसे वो खाना देना चाहा जो खाना वो घर से लेकर चला था रास्ते मे खाने के लिए ! अमन ने उसकी तरफ वो खाने का थैला बढ़ा दिया ! उसने मना कर दिया खाना लेने से, और बोला भैया मुझे खाना नहीं चाहिए मुझे पैसे चाहिए !
अमन ने कहा पैसे से तुम खाना ही खरीद कर खाओगे…. ! नहीं मुझे पैसे की ज़रूरत है ! फिर अमन ने उसे पर्स से ५ रुपये का नोट निकाल कर दिया.. वो बहुत खुश हुआ ५ रुपये का नोट देखकर, पैसे लेकर बोला भैया ये खाना भी ले लूँ…… अमन ने खाना भी उसे दे दिया ! खाना लेकर वो जाने लगा, दुबारा अमन ने उसे अपने पास बुलाया, और उसका नाम पूछा ! बोला माँ मुझे “लल्ला” कह के बुलाती है, मेरा नाम “लल्ला” है !
कहाँ है तुम्हारी माँ और क्या करती हैं…. अमन ने उससे पूछा……..!
वो रोने लगा और रोते हुए बोला मेरी माँ को बुखार है, २ दिनों से सोई हुई है ! वो काम पर भी नहीं जाती है, खाना भी नहीं बनाती, घर मे कुछ खाने को भी नहीं है….मैने कल से कुछ नहीं खाया ! बहुत भूख लगी है मुझे………..अमन ने पूछा तुम्हारे पापा कहाँ है…………!
वो बड़े मासूम से लहजे मे बोला……पापा तो मर गये, बहुत दिन पहले….माँ कहती है ! तब मैं बहुत छोटा था…..उसकी ये बातें सुनके दिल भर सा आया अमन का…!
अमन ने कहा खाना ख़ालो, उसने कहा नहीं…घर ले जाके माँ के साथ खाउँगा ! और इन पैसों से दवा ख़रीदुउँगा, माँ को बुखार है न….इसलिए……………………………उस मासूम से बच्चे का अपने माँ के प्रति प्यार देख कर दिल भर गया अमन का………!

दो दिनों से तो ये भी भूखा है, इसने भी दो दिनों से कुछ नहीं खाया, फिर भी खाना अकेला न खाकर माँ के साथ ही खाउँगा कह रहा है ! इतनी सी उमर मे कितनी बड़ी सोच रखता है..धन्य है वो माँ “लल्ला” जिसने तुझे पैदा किया ! अमन अपना इंटरव्यू भूल गया,और उसके साथ उसके घर गया !
एक छोटी सी बस्ती थी, मुश्किल से १० या १२ घर होंगे उस बस्ती मे ! उसी बस्ती मे एक छोटा सा कमरा था, कुछ चीज़ें इधर-उधर बिखरी पड़ी थी ! वहीं फर्स पे एक महिला मैले-कुचले एक पुरानी सी साड़ी पहने हुए कमरे के एक कोने मे लेटी हुई थी ! जिनकी उम्र तकरीबन २५-२८ साल की होगी….पर ग़रीबी की थपेड़ों और किस्मत की मार से ५० साल की लग रही थी !
अमन ने पास जाकर देखा,बहुत तेज बुखार था,शरीर तप रहा था !
अमन कमरे से बाहर आया और स्टेशन की तरफ चल दिया,स्टेशन के बगल मे एक छोटा सा क्लिनिक था ! वहाँ से डॉक्टर साहब को लेके अमन सीधा “लल्ला” के घर आया ! डॉक्टर साहब ने चेक-अप कर के एक इंजेक्सन और कुछ दवा दिए खाने को !
और कहा शाम तक ठीक हो जाएँगी, अमन ने डाक्टर साहब को पैसे दिए ! डाक्टर साहब के जाने के बाद, अमन “लल्ला” को बोला !
“लल्ला” तुम्हारी माँ शाम तक ठीक हो जाएँगी ! कुछ देर तक अमन वहीं रहा,उनकी अवस्था कुछ ठीक हुई !
तो उन्होने बताया के उनके पति का ४ साल पहले देहांत हो गया,पास के गाव मे बड़े लोग रहते हैं ! उन्ही के यहाँ झाड़ू-पोछा करती हूँ तो कुछ पैसे मिल जाते है !

फिर अमन ने कहा अच्छा अब मैं चलता हूँ, मुझे इंटरव्यू के लिए जाने हैं !
ये कुछ पैसे हैं,रख लो आप ! उसने बहुत सारी दूवाएँ दी अमन को, और भगवान से उसकी लम्बी उमर के लिए दूवाएँ मांगती रही !

अमन बाहर आकर “लल्ला” को अपने पास बुलाया और बोला “लल्ला” अब न जाना स्टेशन पर तुम्हारी माँ शाम तक ठीक हो जाएँगी ! फिर वो काम पर भी जाएँगी और तुम्हारे लिए खाना भी बनाएँगी…!!

फिर अमन स्टेशन की तरफ चल पड़ा, दिल मे एक ही नाम लिए………………………………..”लल्ला”

Acct- इंदर भोले नाथ..१५/०४/२०१५..(IBN)

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शोहरत.....(रै कबीर)

तू क्या जाने है मेरी शोहरत ऐ नादां
कुएं से बाहर निकल और
महफिल – ए – आम में शिरकत तो कर ।।
( रै कबीर )

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तमाशा......(रै कबीर)

तेरा जानबूझकर मेरे पास से खामोश निकलना
और दूर खङे होकर फिर से निहारना
कहाँ से लाती हो इतनी सहनशीलता
मेरा तो सरेआम तमाशा करने का दिल करता है।।
( रै कबीर )

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नफरत.....(रै कबीर)

नफरत हूँ गुरूर तो होगा
मेरा डर जरूर तो होगा
बेवजह उम्मीद लगाते हो
क्यों आई जहन में मैं
कुछ ना कुछ कुसूर तो होगा ।।
( रै कबीर)

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दोस्त का वार.....(रै कबीर)

आहत हुए हो, दिल दुखा है
पीठ के पीछे वार हुआ है ।
फिर से जा, दिल पे छा
दोस्त को अपने घाव दिखा ।
मत रख दिल में कङवाहट
रोक नफ;रत की आहट ।
तेरा सदगुण दोस्ती
छोङ दुनिया क्या सोचती ।
भला किया है और करे चल
सुकूं मिलेगा आएगा वो पल ।
बुरे समय में यही है ढाल
नेकी कर दरिया में डाल ।
भूल वाकया मत कर सोच
हीन नहीं तूं आंसू पोंछ ।।

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फिर से खटपट.....(रै कबीर)

लड्डू बैड से गिरी धङाम
मचा बवाल पूरे घर में ।
सबकी हो गई नींद हराम
और बजा ढोल मेरे सर में ।।
खुद देते हो नहीं ध्यान ?
और बांटते हो हमें ज्ञान!
ठीक है भई गलती हो गई
इतना भी क्या गुस्सा करना ।
देखो अब लड्डू भी सो गई
चुपचाप सो नहीं तो वरना ।।
ऐसे नहीं मैं डरने वाली
छोड़ दो ये धमकी देना ।
सुबह बुला लो कामवाली
उसी से सारे काम लेना ।।
ऐसे क्यों करती हो जानूं
मैं चला रहा था फोन ।
तुमको ही तो सबकुछ मानूं
तुम बिन ध्यान रखे कौन ।।
ये लो अब तो गया नेटवर्क
फोन को भी कर दिया है बंद ।
अधूरे रह गए सारे चैटवर्क
ना कोई लेख ना कोई छंद ।।

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चित्रकार......(रै कबीर)

चित्रकार वो ऐसा है हर रंग तुझे दिखलाएगा ।
पथ ये आगे कैसा है हर मोङ पे कुछ सिखलाएगा ।।
बस चलता जा तूं बिना थके ।
बिना रूके बिना झुके ।।
जीत लिया गर अपने मन को ।
समझो जीत लिया इस रण को ।।
चित्रकार ये लेता परीक्षा ।
रखना ध्यान में मेरी शिक्षा ।।
आखिर मांगे क्या चित्रकार ।
कङी मेहनत और परोपकार ।।
जब तक जाँ रहूंगा साथ ।
मजबूती से थामे हाथ ।।
बाद मेरे भी रखना हिम्मत ।
खुद हाथों से गढना किस्मत ।।
करके तप बनो औजार ।
आत्मबल ही है हथियार ।।
भरो खूबी से ऐ कलाकार ।
रंग जो भी दे वो चित्रकार ।।
( रै कबीर )

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एक घर ऐसा ढूंढ रहा हूँ......(रै कबीर)

एक घर ऐसा ढूंढ रहा हूं
जहाँ चारदिवारी
शोहरत की ना हो
जहाँ दरवाजा
नफरत का ना हो ।।
(रै कबीर)

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यही है माया ......(रै कबीर)

खुश किस्मत है देखले भाया
कल का चेहरा सामने आया
बीता कल तुझे यहाँ तक लाया
ना जाने कहाँ ले जाए ये साया
समझ ले भैये यही है माया
जिससे कोई भी बच ना पाया।।।।
(रै कबीर)

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एक अरसे बाद.....(रै कबीर)

एक अरसे बाद खो गया
खो गया तेरी राहों में फिर एक अरसे बाद
एक अरसे बाद रो गया
रो गया तेरे भावों में फिर एक अरसे बाद
एक अरसे बाद सो गया
सो गया तेरी बाहों में फिर एक अरसे बाद

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उङाया जो मुझे धुंए सा......(रै कबीर)

उङाया जो मुझे धुंए सा
रह गया प्यासे कुंए सा
इक पल में सब कुछ हार गया
खेल था मैं इक जुए सा

बंट चुका हूँ हिस्सों में
याद आउंगा किस्सों में
इक पल में सब कुछ हार गया
बस कुछ रंगों के इक्कों में

नाम का ही बस नाम था
मतलब था तो काम था
इक पल में सब कुछ हार गया
मैं तो इक गुलाम था

एक समय खुद को रोका था
बचने का वो मौका था
इक पल में सब कुछ हार गया
इस खेल में भी धोखा था
(रै कबीर)

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तूं नारी है ......(रै कबीर)

तूं नारी है तेरी जय हो
तुम सुरों की बहती लय हो
तुम से ही जीवन सुखमय हो
तेरी शक्ति से दानव को भय हो

ये तुच्छ नर तेरा दास है
तूं है तो इसका वास है
तेरी देह से इसका मांस है
हर मुश्किल मे तूं आस है

हर रूप तेरा है प्यार भरा
तूनें बंजर को कर दिया हरा
तुझ पर ही नर की टिकी धरा
इस मूल का रिश्ता है गहरा
( रै कबीर )

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देर रात के मैसेज से परेशान.......(रै कबीर)

हाले दिल बयां में काहे की शरम
जरा तुम भी दिल कोे रखो नरम
हाल ही पूछा कोई कत्ल ना छोरी
क्यूँ बिन बात कै न्यूं बावली होरी
माना कई बार दिक्कत सी होवैं
पर छोरियां भी तो टैम तै सोवैं
जद मिलैगी ना तूं चैट अॉन
फेर करेगा तनैं मैसेज कौन ।।।।

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पी तो है.....(रै कबीर)

पी तो है पर होश में हूं
दुख तो है पर जोश में हूं
बुरा नहीं अच्छाई देख ले
झूठ नहीं सच्चाई देख ले
(रै कबीर)

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कोशिकांगों की लङाई.......( रै कबीर )

हर रोज उठने वाले इन विवादों और झगङों का असर वैसे तो देशव्यापी है ही पर सालों की इस लङाई का असर इतनी गहराई तक जा पहुंचेगा , ये कभी नहीं सोचा था। इंसानी शरीर की मूल ईकाई कही जाने वाली ” कोशिका” तक ये लङाई पहुंच चुकी है। देखिए!!! खुद ही देख लीजिए ये तमाशा और और समाजिक लङाई का शरीर पर कुप्रभाव ………..
………………………………………………
कोशिका के बुरे हैं हाल
उपापचय की बिगङी चाल ।
कोशिकांगों में हुआ है झगङा
बताओ सबसे कौन है तगङा ।।

मैं हूँ असली कार्यपालिका
नाम है अंत: प्रद्रव्यी जालिका ।
मेरे पास है ऐसा मंत्र
अंत: कोशिकीय परिवहन तंत्र ।।

ज्यादा ना कर चपङ चूं
ये ले पकङ प्रोटीन तूं ।
मेरा नाम है राइबोसोम
मुझसे ही तेरा रोम रोम ।।

प्यार से बोला गोल्जीकाय
किस बात की ये हाय हाय ।
हम सबका ये प्यारा होम
डिक्टियो, परॉक्सि, लाइसोसोम ।।

बिन मतलब की ना दो राय
मैं हूँ अकेला तारककाय ।
मेरे बिन न चलेगा रथ
मैं ही बनाऊं विभाजन पथ ।।

केंद्रक है भाई मेरा नाम
यहीं पर होते मुख्य काम ।
कोशिका का करता रक्षण
और क्रियाओं पे नियंत्रण ।।

DNA, मैं सबसे महान
मुझसे ही ये सारा जहाँन ।
अगले वंश का करूं कल्याण
और नई जाति का निर्माण ।।

माइटोकॉण्ड्रिया, बिजलीघर
मुझ बिन भटकोगे दर दर ।
ATP अणु और F1 कण
मेरा मोहताज सबका हर क्षण ।।

बहुत हुई सबकी बकवास
अभी करता हूँ सर्वनाश ।
भूलो मत, मैं लाइसोसोम
फटूंगा, जैसे एटम बॉम्ब ।।

मत करो तुम घर को भ्रष्ट
वरना कर दूंगा सब नष्ट ।
मिलजुल के सब काम करो
तंत्र में कुछ नाम करो ।।

क्यों करते खुद को कमजोर
फिर सेंधेंगे डाकू, चोर ।
ईर्ष्या भाव में दोगे धोखा
और दुश्मन को मिलेगा मौका ।।

मेहनत करो, रहो संग मिल कर
वरना सब हो जाओगे बेघर ।
कभी न सुलझेगी ये गुत्थी
गर न बनके रहोगे मुट्ठी ।।।।
(रै कबीर)

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शनिवार, 30 जनवरी 2016

ये तुम तो नहीं हो.......

आंखो के पीछे से, पलकों के नीचे से ,

सपने ही सपने में, अपने ही अपने में

हौले से मुझको पुकारा किसी ने

ये मेरा भरम है या सच में कोई है

मैं अनजान हूँ क्यों, अगर वो यहीं है,

मेरे पास तो सिर्फ खामोशियाँ हैं

और मुझमे समाई ये तनहाइयाँ हैं

हाँ यादो के थोड़े से लम्हे यहाँ पर

मेरे पास बैठे हैं चुपके से आकर

हवा भी तो चुप है मुझे ये पता है

और इसके अलावा न कोई यहाँ है

शायद शरारत है खामोशियों की

या कोई अदा है ये तनहाईयों की

कहीं यादों की किसी गली से निकल कर

ये तुम तो नहीं हो, ये तुम तो नहीं हो, ये तुम तो नहीं हो ………

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धुंधली छवि

मेरे दिल के आईने में एक छवि सी बनी जाती है l
मैं जितनी मिटने की कौशिश करता हूँ,
बो उतनी ही नज़र आती है l
मेरे दिल के आईने में ——–

जब बो हंसती है,मुस्कुराती है ,
तो मेरा दिल भी हँसता है,मुस्कुराता है l
कुछ तो बात जरुर है उसके चहरे में-
जो दिल कि पतंग खुद ब खुद,
उसकी और चली जाती है l
मेरे दिल के आईने में ——–

खवाबों की तन्हाई में बहुत सी बातें करता हूँ
जब सामना होता है तो चाहता हूँ,
कि उड़ेल कर रख दू अपने दिल को-
पर कम्बखत आबाज थमी जाती है l
मेरे दिल के आईने में ——–

पता नहीं उसके आईने में,
मेरा कैसा अक्स उभर रहा हो l
पर इधर तो बो हाल है-
कि बुझाए बुझती नहीं चिंगारी प्यार की,
खुद ब खुद जली जाती है l
मेरे दिल के आईने में ——–

जितना भी कुरेदता हूँ अपने जख्मों को,
उतना ही उस को अपने करीब पता हूँ l
पिछले कुछ ऱोज से न जानें क्यों –
बह मेरे हर ज़ख़्म कि दवा बनी जाती है l
मेरे दिल के आईने में ——–

मैं नहीं चाहता,
कि मेरी बजह से ज़माना ताने कसे उस पर l
पर क्या करू ख्याल आते ही,
दिल में खलबली मची जाती है l
मेरे दिल के आईने में ——–

संजीव कालिया

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*** JAI HIND ***

मशालें जलने दो

मशालें जलने दो दिलों में
प्यार की कुछ चिंगारी उठने दो
नफरत का अंधेरा बुझे इस तरह
के इन्सानियत पे अपने कदम बढने दो !!

जात-पात पे सिमटी हर सोच, लालच से घिरा हर अरमान
सरहद पे कभी नजरों की रंजिश, तो कभी भेजा गया गोलियों का फरमान !
मशालें जलने दो हर सोच पे, इबादत एक दूजे पे कर लेने दो
रुसवाई के बादल हटे इस तरह, के मुस्कान के कुछ गुल खिलने दो !!

कभी बेआब्रू होती रही औरों से, तो कभी घर की पहेलियाँ जंजीर बनी
हर उम्र की कहीं लगती है बोलियाँ, कभी दुनियाभर के रिश्तों की तकदीर बनी !
मशालें जलने दो हर सीख पे, के रूह में इनायत को समझने दो
घडी की नोक जैसी उसकी जिंदगी में, फुरसत की घडियाँ उसे चुनने दो !!

बेरोजगारी, भूखमरी तो कहीं सूखा सावन, मँहगाई की पहचान बना सबका अरमान
हालातों से बेसब्र हुआ इमान कहीं, रिश्तों की नीव पर दूरीयों का इम्तिहान !
मशालें जलने दो उम्मीदों पे, हौसलों पर कभी तारीख लगने दो
आशियाना ना टूटे नेक इरादों का, जिंदगी के आँगन में कुछ लकीर लगने दो !!

चुनाव का बाजार कहीं लगता है मेला, कोई खेले आँखमिचौनी कोई अदला-बदली
हार जीत के किस्सों की अनगिनत जुबानी, आखिर में छुपाली सारी जमा-पूँजी !
मशालें जलने दो हर लब्ज पर, वादों के एहसास को कुछ परखने दो
कुछ आँखों मं आज भी आस बाकी है, रोशनी के कुछ पलों में उन्हें चमकने दो !!

मशालें जलने दो हर करम पे
इतिहास को खुद अपना गवाह बनने दो
सफर लंबा जरूर है सबका
के सदियों के लिहाज में अपना अक्स तरशने दो !!

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लम्हा तो चुरा लूँ...इंदर भोले नाथ

उन गुज़रे हुए पलों से,
इक लम्हा तो चुरा लूँ…
इन खामोश निगाहों मे,
कुछ सपने तो सज़ा लूँ…

अरसा गुजर गये हैं,
लबों को मुस्काराए हुए…
सालों बीत गये “.ज़िंदगी”,
तेरा दीदार किये हुए…
खो गया है जो बचपन,
उसे पास तो बुला लूँ…
उन गुज़रे हुए पलों से,
इक लम्हा तो चुरा लूँ…

जी रहे हैं,हम मगर,
जिंदगी है कोसों दूर…
ना उमंग रहा दिल मे,
ना है आँखों मे कोई नूर…
है गुमनाम सी ज़िंदगी,
इक पहचान तो बना लूँ…
उन गुज़रे हुए पलों से,
इक लम्हा तो चुरा लूँ…

इंदर भोले नाथ…
३०/०१/२०१६

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शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

मेरी माँ - सोनू सहगम

mother-kissing-sons-

-: मेरी माँ :-

मुझे इंतजार है अब, उस पल का,
जब माँ से मेरी मुलाक़ात होगी ।
सच कहता हूँ – मानो
उस वक़्त, जन्नत पास मेरे होगी ॥

माँ के मुख से निकले हर लफ्ज से,
तकदीर ये मेरी खुल जाएगी ।
ज्ञान का खुलेगा भण्डार,
प्रेम की मुझपर वर्षा हो जाएगी ॥

उनके मार्ग दर्शन से जीवन मेरा,
ये धन्य – धन्य हो जाएगा ।
ममतामय माँ का पाकर प्यार,
ये बेटा क्रतज्ञ हो जाएगा ॥

करुणामय ,देवीस्वरूपा प्रत्यक्ष
चहेरा सामने होगा माँ का ।
एहसास मुझे होने लगा है,
अभी से, उनके अदर्श स्पर्श का ॥

कल्पना मात्र से ये हाल हुआ है,
देखो जरा- इस लाल को माँ ।
माँ की गोद मे जब ,सर मेरा होगा
जाने- उस पल क्या होगा माँ ॥

माँ ! तेरे सदगे मे अब ,
ताउम्र शीश अपना ये झुकना है ।
"सहगम" को क्या अब चाहिए,
मेरी माँ ! प्यार तेरा मुझे पाना है ॥

( लेखक :- सोनू सहगम )

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रात के बाद

‘चिराग’ उन्हें फीका लगा होगा 
हमने जो ‘दीपक’ जलाया अभी


खुशियाँ भी कुछ कम लगी होंगी
खुल के हम जो ‘मुसकराये’ अभी


गफ़लत में थे देख परतें ‘उदास’
आह भर भर के वो पछताए अभी


कद्र कर लेते रिश्ते की थोड़े दिनों
जब फंसे थे मुसीबत में हम कभी 


तब उड़ाई हंसी ज़ोर से हर जगह
मानो दिन न फिरेंगे हमारे कभी 


ऐसा भी न था जानते कुछ न ‘वो’
रात के बाद दिन जग की रीत यही 


– मिथिलेश ‘अनभिज्ञ’
Hindi poem on success, failure, day night, mithilesh, poet
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मंचला मन

मंचला ये मन चला न जाने कैसी खोज में ,
ये मन ही मन में डूबता न जाने कैसी सोच में ,
मंचाला ये मन चला न जाने कैसी खोज में।

धरा -धरा गगन – गगन, पहाड़ मार्ग और वन ,
शहर-शहर, गली-गली, है मन के मन में खलबली,
न जाने कैसी सोच है, ये सोचता चला गया,
न जाने कैसी खोज है, खोजता चला गया,
न कुछ मुझे बता रहा, न लब जरा हिला रहा,
न जाने मेरा मन ही क्यूँ मुझी से कुछ छीपा रहा,
इधर उधर भटक रहा, न जाने कैसी खोज में,
ये मन ही मन में डूबता न जाने कैसी सोच में,
मंचला ये मन चला न जाने कैसी खोज में।

कभी कभी मुझे लगे ये बावला सा हो गया,
कभी कभी मुझे लगे ये सरफिरा सा हो गया,
कभी लगा है कुछ दिखा, नहीं ये मन का भ्रम ही था,
कभी लगा है कुछ मिला, नहीं ये मन का भ्रम ही था,
है होश ये खोये हुए, न जाने कैसे जोश में,
मंचला ये मन चला न जाने कैसी खोज में,
ये मन ही मन में डूबता, न जाने कैसी सोच में।

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भीख

दानी देता है कहूँ या खुदा ही देता है
तकदीर हमें तो हरदम दगा ही देता है

हाथ फैलाऊँ तेरे या भक्तों के सामने
वक्त बेवक्त तूँ हमें सजा ही देता है

मन्त्रों के साथ-साथ कलमा भी पढ़ी थी
पेट भरने के लिए बस हवा ही देता है

जानता है भक्त कौन, कौन है पाखण्डी
फिर भी उनकी गाडी तूँ चला ही देता है

भूखा मांगे भीख कहे पंडित मांगे तो दानं
पाँव छूते ढोंगि का हमें धक्का ही देता है
२२-०७-२०१५

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गजल

दोस्ती नहीं सही दुश्मनी बनाए रखना
तेरा मेरा जहाँ पे चर्चा चलाए रखना

ये जान तो तेरी थी न हुवा तुझे मंजूर
हम न सही मेरी यादें सिने में लगाए रखना

अगर हो इजाजत तो रूह बन के आऊँ
अँधेरे में डरना नहीं बस दिया जलाए रखना

सायद तेरे दिल भी कभी मेरे लिए धड़के
होने लगेगी दर्द तो मन में छुपाए रखना

अपनी बेबफाई की जब होने लगे एहसास
आँखों से आँशु बहा के न हमको रुलाए रखना
१४-०१-२०१६

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गजल

गजल

तुम से मिल कर इश्क मेरा फिर बेचारा न हो जाए।
आँखों से बहते पानि कहीं किनारा न हो जाए।

मिलने के वाद हि तो ये दर्द बना मेरा,
अब मिलु तो वो दर्द कहि तुम्हारा न हो जाए।

इस दर्द में भी मजा अजीब सा है यारों,
कही ये दर्द ही मेरा सहारा न हो जाए।

बड़े जतन से रख्खा है सिने में लगा कर,
क्यों करूँ दवादारु कही छुटकारा न हो जाए।

जब दर्द इतनी अनोखी है तो क्यों मिलना फिर से,
डरता हूँ कही इश्क तुम्हे दुबारा न हो जाए।
२९-०१-२०१६

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जीवन परिचय - सलीम रज़ा- Biography of salim raza rewa

(introduction of salim raza rewa )
जीवन परिचय – सलीम रज़ा
पूरा नाम – मोहम्मद सलीम रज़ा
शायरी नाम – सलीम रज़ा रीवा
तख़ल्लुस – ” रज़ा ”
जन्म स्थान – मध्य प्रदेश का रीवा ज़िला
तालीम – उर्दू में स्नातक ,
नौकरी – ब्रान्च मैनेजर लाइफ़ इन्सुरेंस ,
रचना प्रकाशन – कई पत्र पत्रिकाओं में रचना प्रकाशित ,
रचना पाठ – आकाशवाणी में कई प्रकाशन , दूरदर्शन में रचना प्रशारण, कई मुशायरे एवं कवि गोष्ठी में रचना पाठ
रचना विधा – गीत , ग़ज़ल , क़तआत , नात – ए – मुबारिक , हम्द
उपलब्धि – महकते हुए फूल ,
प्रकाशन के लिए तैयार – गुलशन -ए -रज़ा
Mobile – 9981728122 , 9424336644
Email- salimraza1975@gmail.com

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अक्षर

मत लिख कवि मूझे कोरे कागज पर कोई कागज गिला कर देगा ।
हाथ पाँव पोछ कर अपमान मेरा करदे गा॥

अ…….से अमर बन जाऊं ।

क्ष …….से क्षत्रिय बन जाऊं ।

र………से ऋषि बन जाऊं ।

ज्ञान ऋषि से ले लेना ।

मत लिख कवि..
त…………से बनूं तकदीर किसी की ।

फ…………से फाँसी बन जाऊँगा ।

मत लिख कवि……
धूल भरी है उस न्याय मन्दिर में मट मैला हो जाऊँगा ।
तकदीर वाला फट गया पन्ना किसी सज्जन को फाँसी दिलाऊगां ॥
मत लिख कवि ……..
मटमैला पन्ना पङ गया धरती पर अब तो कोई बाहर कर देगा ।
रद्दी वाले के लग जायेगा हाथ तो जिल्द या ठूमा कर देगा ॥
मत लिख कवि ………
आया किसी मिलावटखोर के हाथ तो जहर या नशा भर देगा ।
मर जाए कोई इन्सान तो अपमान मेरा कर देगा ॥
मत लिख कवि ….

अक्षर ने कविराज को बहूत समझाया

ज्ञान ऋषि का समझ मे नहीं आया.
कविराज ने दिमाग घूमाया ।

अमर शहीद जुबान पर आया लक्ष्मण अमर नाम कर लेगा ॥
मत लिख कवि ……

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रेत के घरोंदे

( रेत के घरोंदे शब्द स्त्री के लिए और लहरे शब्द पुरुष के लिए इस्तमाल किया है )

रेत के घरोंदों की तरह मैं बहती जा रही हूँ
सागर भरा है लहरों से, सभी लहरे मुझे बहाती जा रही है
एक लहर को भी ना आये रहम, क्यों मैं खत्म होती जा रही हूँ?

क्यों ढूंढती हूँ अपना पन इन लहरों में
लहरे तो अपना काम करती जा रही है

चेहरा उदास, मस्तक झुका, हाथ जोड़ा
आँखे भर आई फिर भी लहरों ने मुझे बहा दिया

क्यों किसी को मुझ पर दया नहीं आई
क्यों किसी ने मुझे फिर से नहीं बनाया?
रेत के घरोंदों की तरह मैं बहती जा रही हूँ

– काजल / अर्चना

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मेरी डायरी के पन्ने- भाग -५ लेखक - मीरा देवी

मेरी डायरी के पन्ने- भाग -५ लेखक – मीरा देवी
नारी प्रेम का मंदिर है, आदमी प्रेम पुजारी है
ये बात है बरसो पहले की, अब तो सोच ही अजब- न्यारी है
नारी गर बीमार हो, तो मर्द पर वो भारी है
जब उसके सुख भोग का साधन बने, तब कहता है के नारी है
हाय रे! समाज का दुर्भाग्य, बड़ी दुखद: बेबसी और लाचारी है
अब नारी प्यार का मंदिर है, पर आदमी हवस का पुजारी है
इस कोने से उस कोने तक, आग लगी संसार मे
आबरू एक नारी की, बिक रही सरे बाजार मे
हवस को प्रेम समझती है, तभी तो आज भी जग से हारी है
प्रेम नहीं इस जग मे अब, जानती ये दुनिया सारी है
अब नारी प्रेम का मंदिर है, पर आदमी हवस का पुजारी है……

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पुरानी कलम

दावात की शीशी से झाँक रही है सूखी हुयी स्याही..
पूछती है, क्यों नाराज़ हो क्या?

उधर मेज़ पर औंधें मुंह पड़ा है मेरा पुराना कलम..
मानो खिसिया के कह रहा हो..
“देख लूँगा”…

फिर एकाएक कर बोला..
मियाँ, क्या लिख रहे हो?
ये जो तुम टक-टक करते रहते हो फ़ोन-आई-पैड पर,
उसे ‘लिखना’ नहीं, ‘टाइपिंग’ कहते हैं…

तुम्हारी कविताओं में अब वो बात नहीं,
सिर्फ शब्दों का धुंआ है, कला की भभकती आग नहीं…

तुम्हारे लफ्ज़ अब पन्नों पर नाचना भूल गए हैं…
तुम्हारी कविता मुझसे आँख-मिचोली खेलते-खेलते खो गयी है…

लगता है भूल गए वो रात-रात भर जागकर,
कागज़ों पर लिखना-मिटाना और फिर लिखना…
एक के बाद एक पन्नों पर कलम से लफ़्ज़ों की बौछार करना…

पर मैं तुमसे क्या शिकवा-शिकायत करूँ,
तुम तो प्यार का इज़हार भी वॉट्सऐप पर करते हो…
और देशभक्ति भी सिर्फ फेसबुक और ट्विटर पे जताते हो….

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गुरुवार, 28 जनवरी 2016

बरसों बाद लौटें हम....

बरसों बाद लौटें हम,
जब उस,खंडहर से बिराने मे…
जहाँ मीली थी बेसुमार,
खुशियाँ,हमें किसी जमाने मे…

कभी रौनके छाई थी जहाँ,
आज वो बदल सा गया है…
जो कभी खिला-खिला सा था,
आज वो ढल सा गया है…

लगे बरसों से किसी के,
आने का उसे इंतेजार हो…
न जाने कब से वो किसी,
से मिलने को बेकरार हो…

अकेला सा पड़ गया हो,
वो किसी के जाने से…
लगे सिने मे उसके गम,
कोई गहरा हुआ सा हो..
वो गुज़रा हुआ सा वक़्त,
वहीं ठहर हुआ सा हो…

घंटों देखता रहा वो हमें,
अपनी आतुर निगाहों से…
कई दर्द उभर रहे थें,
उसकी हर एक आहों से…

कुछ भी न बोला वो बस,
मुझे देखता ही रहा गया…
उसकी खामोशियों ने जैसे,
हमसे सब कुछ हो कह दिया…
क्या हाल सुनाउँ मैं तुमसे,
अपने दर्द के आलम का…
बिछड़ के तूँ भी तो,
हमसे तन्हा ही रहा…

बरसों बाद मिले थें हम,
मिलके,दोनो ही रोते चले गये…
निकला हर एक आँसू,
ज़ख़्मों को धोते चले गये…

घंटों लिपटे रहें हम यूँही,
एक-दूसरे के आगोश मे…
जैसे बरसों बाद मिला हो,
बिछड़ के कोई “दोस्ताना”…

मैं और मेरे गुज़रे हुए,
मासूम सा “बचपन” का वो ठिकाना…

Acct- इंदर भोले नाथ…

२८/०१/२०१६

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कैसा ये हिंदुस्तान है - सोनू सहगम

-: कैसा ये हिंदुस्तान है :-

कैसा ये हिंदुस्तान है।
जहाँ सोया हर इंसान है।।

एक दूसरे की कमियाँ तलासते है
अपने गिरेबां में ना वो झांकते है
कुर्सी के लिए मचा हर तरफ कोहराम है।
आबरू -इज्जत का कोई मोल ना रहा
बिकता है ईमान, चौराहे पर
जैसे हो रहा तमाशा सरेआम है
बेबस आम जनता ,बेहाल ,परेशान है।।

हिन्दू- मुस्लिम ,क्यों हो गए है पराए
बिस्मिला-भगत की याद, कोई इन्हें दिलाए
उस वक़्त,बच्चा -बच्चा गन बोता था
हर सीने में, आज़ाद-अशफाक होता था।
नारी के हाथों में तलवार चमकती थी
सिंदूर की कुर्बानी देने से न डरती थी
जगाना है , सोया जो ईमान है ।।

बहुत हुआ ,अब जागो नींद से यारों
हर देश की नजर हम पर है यारों
खुद को अब तो पहचानों यारों ।
चिंगारी जो बुझ गयी दिलों में
उसको अब मशाल बनाओ यारों
सबको मिलकर साथ चलना होगा
हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, भाई-भाई होगा
दिखा दो “सहगम”,सच से प्रमाण है ।।

( लेखक :- सोनू सहगम )

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जहर

हो गया मेरे देश का जल दुषित। अब इस पावन धरा का हाल क्या होगा |
पहले लूटा अग्रेजो ने गरीब कोअब इस फकीर का क्या होगा॥
खोल दिये गलि मोहल्ले मे कल कारखाने गर्भ मे पल रहे बच्चे का हाल क्या होगा |
क्या परोसेगी बच्चे को माँ आंचल से उस थाल में क्या होगा ॥
हो गया ,,;,;,;,,,,,,
कट जाएँगे पेङ पौधे सारे विष के बादल

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यादे ............

कैसे भुलाये हम तेरी यांदो को
रह रह कर दिल में उभर आती है !!

जब जब गिरते है आँखों से आंसू
कागज पर तेरी तस्वीर बन जाती है !!

वो यादे, वो बाते कुछ जानी अंजानी सी
न जाने क्यों अब हर पल मुझे सताती है !!

अरसा बीत गया तेरी वो मधुर आवाज सुने
मिस्री सी कानो में घुलती बोली याद आती है !!

देखा था एक ख़्वाब रूबरू मिलन का
वो मुलाकात की कसक आज भी सताती है !!

खोजता हूँ अपने आप में उस खामी को
जो तुझ से जुदाई की वजह बन जाती है !!

हमने तो समझा लिया है अब इस दिल को की
कुछ मजबूरिया भी दूरियों की वजह बन जाती है !!

माना की फास्लो के दरमियान दर्द बढ़ता है
मगर दर्द भी कभी ख़ुशी की वजह बन जाती है !!

तेरे किस्से है, या लगी गुमनाम चोट कोई,
पुरवाई चले तो तुरत असर कर जाती है !!

मन में घुमड़ते है यादो के बादल आज भी
बारिश बनकर इन नयनो से बरस जाती है !!

इस तरह घुलमिल गयी हो “धर्म” की साँसों में
जैसे दूध की चन्द बून्द पानी को अमृत बना जाती है !!
!
!
!
डी. के. निवातियाँ ……………….

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39.......!

मेरी दवा भी तूँ, मेरी दुआ भी तूँ…
मेरे जीने का ज़रिया, है मेरा खुदा भू तूँ…
तेरी रहमतो का कुछ यूँ, असर हुआ हमपे…
दूर रह के भी न लगे, जुदा भी तूँ…

Acct- इंदर भोले नाथ…

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मेरी याद में तूं

मेरी याद में तूं मेरी भूल में तूं
मेरे सूक्ष्म में तूं मेरे स्थूल में तूं
मैं मंजूर हूँ तुझे मुझे कबूल है तूं
मैं तोड़ ना पाऊ वो उसूल है तूं
मैं जाग जाऊ तो यादो में आती है
सो जाऊ तो सपनो में आकर सताती है
तेरे साथ का वो थोड़ा समय
दिल को कितना सुकून दे जाता है
ख्वाबो में तेरी मुस्कराहट का शोर
मुझे नींद से जगा देता है
तेरी ख़ामोशी का अहसास
दिल को अचानक से डरा जाता है
भूल से भी भूल जाऊ तुम्हे दो पल
तो ये दिल खाली सा हो जाता है !!!

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मौत

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बुधवार, 27 जनवरी 2016

38..........!

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Acct- इंदर भोले नाथ…

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