गुरुवार, 3 मार्च 2016

गजल

गैरों की क्या बात करूँ हमने अपनो को भी आजमाया था
पूजा किया उन पत्थरों को जिससे रास्ते में चोट खाया था

कंधे में लेकर घूमते थे जिसे आज रसोई हो गई अलग उनसे
खुद भूखा सो कर भी उन्हें हमने जो भी मिला खिलाया था

सुख मिले उन्हें कह कर मुसिवतें उठाएँ कितने हमने
दिवार लग गयी आँगन में जहाँ कभी सुन्दर घर बसाया था

अपने निचे समेटकर अन्धेरा जिंदगी भर दिया जलता रहा
और तूफान आने से पहले खुद जलती हुई दिया बुझाया था

अपने भी अब न होते अपने इस मतलवी दुनियाँ में
मगरमच्छ के आँशु चुहाते उसने पार्थिव अर्थी जलाया था
२६-०६-२०१५

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