गुरुवार, 3 मार्च 2016

ज़माने की हवा .. ग़ज़ल

ज़माने की हवा .. ग़ज़ल

आजकल मेरे वतन के गुलों के चेहरे क्यों है बदरंग ?
मुझे बताओ क्यों है इतनी ज़हरीली ज़माने की हवा ?

मगरिब से या मशरिफ से कहीं से तो आई है ,
बेखौफ ,बेतकल्लुफ सी मस्तानी ज़माने की हवा .

यह आज़ाद – खयाली और मिजाज़ में बेपरवाही ,
ज़ज्बातो को खुश्क कर रही है ज़माने की हवा .

पहले तो कभी खून में नहीं था वेह्शी पन औ गद्दारी ,
धोखा और नफरत का ज़हर क्यों घोल रही है ज़माने की हवा ?.

जवां जिंदगियां है जबसे गुनाहों के दल-दल में धंसी हुई,
तालीम -ऐ- शमा को बेनूर कर रही है ज़माने की हवा .

बड़े -बूढों का लिहाज़ , माँ-बाप की सेवा और औरतों की कद्र ,
कैसे हो ?, जब आँखों का पानी सुखा रही है ज़माने की

बनावट के असूलों से सींचे गए यह कागज़ के गुल है ,
रिश्तों की नमी को क्या समझने देगी ज़माने की हवा ?.

दीन – ओ – ईमान और खुदा को कर तो दिया रुसवा ,
दौलत और ऐशो-इशरत का दीवाना बना रही ,ज़माने की हवा .

गुलों का है गर यह हाल तो कलियों की तो पूछिए मत ,
शर्मो -हया का पर्दा इनका गिरा गयी ज़माने की हवा .

क्या यह खुश्क और बेरंग गुल संवारेंगे वतन का मुस्तकबिल,
बहका रही जिनके कदम शराब ओ-शबाब ,यह ज़माने की हवा .

देखकर इन नए ज़माने के गुलों का रंग-ढंग ,हैराँ है अनु ,
किस तरह संभाले इन्हें, जिन्हें उड़ा ले जा रही है ज़माने की हवा.

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