नवप्रभात की मनोहारी बेला पर एक ओस को हसते हुए देखा.
चिड़ियों को कलरव करते हुए देखा
बसंत में नए उग आये पत्ते को निहारा
नदियों को उफनते हुए और सागर को शांत होते हुए देखा.
ऐसा लग रहा था मनो मैं पक्षियों की भातिं गगन विहार कर रहा हूँ
तभी एक श्वेत वस्त्र धारण किये हुए एक पारी को धरती पर उतरते हुए देखा.
चेहरा इतना दीप्यमान था की हजार दिए की रौशनी भी फीकी पड़ जाए.
उनके शरीर से एक दिव्य आभा निकल रही थी जो सारी धरती को प्रकाशित कर रही थी.
मैं तो बस उनके आँखों के गहराइयों में डूब गया और पता ही नहीं चला कब होश आया.
होश आने पर उनके विशाल जुल्फे के तले पाया और होश आते ही फिर बेहोश हो गया, क्या करे यह मादक सुगंध बड़ी बेशुमार जो थी.
तीखे नयन, रेशमी जुल्फे, सुराही सी ग्रीवा , मधुशाला से भरे हुए ओंठ और नाजुक सा बदन.
और एक ”मखमली सी छुअन ” जो मुझे भुलाये नहीं भूलती हैं .
उस मखमली सी छुअन की कोई उपमा नहीं और कोई कल्पना नहीं.
जैसे सैकड़ों साल से सूरजमुखी में बंद भवरे को मुक्ति मिली हो.
जैसे नवबसंत में पेड़ हरे हो गए हो और मदमस्त होकर गीत गा रहे हो.
जैसे बदल को देखकर मोर मंत्रमुघ्द होकर नृत्य कर रहा हो.
पर वो चली गयी अपने लोक क्यूंकि धरती उनका ठिकाना नहीं है.
और मैं टूटे हुए तारे की भाति टूटता चला गया .
मरूभूमि में सुख गए पुष्प की भाति मेरा चेहरा भी फीका हो गया है.
ऐसा लगता है जैसे लहलहते हुए फसलों में किसी ने आग लगा दी हो.
खैर ! एक एहसास है जो अब भी बाकि है
एक मुलाकात है जो अब भी बाकि है
एक पैगाम हो जिसे पहुचना अब भी बाकि है.
एक खव्हीस है जो न जाने कब पूरा हो , एक ”मखमली सी छुअन की”.
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