फ़ासले रिश्तों के दरमियाँ
बता कर नहीं आते
कोई ज़ख्म गहरा
कोई मजबूरी सी
कोई ग़म
कोई अफ़सोस इक रोज़
अपने साथ सब कुछ
ले जाता है
और ख़ामोश रूहें
अलविदा कह कर बिछड़ जाती हैं
उम्र भर के लिए
दिल चीख चीख कर रोते हैं
पर आवाज़ नहीं करते
उन्हें चुप कराने
बड़ी देर तक कोई नहीं आता
ज़िन्दगी भी नहीं
मौत भी नहीं।
hindi sahitya
शुक्रवार, 25 मार्च 2016
फ़ासलों का हश्र
गुरुवार, 24 मार्च 2016
पर्यावरण के दुश्मन हम
घोर चिन्ता मे आज मानव मन
देख बदलते पर्यवरण;
प्रक्रिति ने जताई आपत्ति
देकर पर्यावरण मे विपति;
मानव न सोचा न जाना
प्रक्रति को ललकारा
काट दिये सारे जगल
अब कहते है लगाओ जगल
जगल मे ही है मन्गल
रोक दिए नदीयो के चाल!
देख बदलते पर्यावरण
घोर चिन्ता मे मानव मन
किन्तु मानव है स्वार्थी,बेदर्दी,
पस्चाए तब जब निक्ले अर्थी
अब पस्च्ताए क्या होत जब चिरईया
चुग गयी खेत !
कविता।पगडण्डी के उस पार।होली आयी।
पगडण्डी के उस पार।होली आयी ।
होली आयी डरा गरीब
पखवारे भर का दाम
बस एक रात की शाम
उम्मीद लगाते बच्चे
किस्मत बेले पापड़
सहता त्योहारों का भार ।
पगडण्डी के उस पार ।।
चलो दिखाएँ खुशियाँ
पनपाती दुःख रूपी व्याज
ब्यवहरो में लाज
समाज झांकता चूल्हा
सस्ते व्यंग्यों के वाण
निर्धनता के अनुसार ।
पगडण्डी के उस पार ।।
सब रंग दिखे दो रंग
फ़बते गजब अजीब
अमीर और गरीब
काला और सफेद
बदरंग करें हुड़दंग ,दूसरा बेबस ,
सहता किस्मत की मार ।
पगडण्डी के उस पार ।।
__©राम केश मिश्र
Read Complete Poem/Kavya Here कविता।पगडण्डी के उस पार।होली आयी।तेवरी।चारो तरफ़ बवाल है ।
तेवरी । चारो तरफ़ बवाल है ।
भारत माँ की शान का ।
जनता के अरमान का । बुरा हो रहा हाल है ।।
दिशाहीन इस राज में ।
अंधे बने समाज में ।चारों तरफ़ बवाल है ।
प्रेम नही बस स्वार्थ है ।
जन जन का ,चरितार्थ है । हुआ जा रहा काल है ।
सज्जन तरसे भात को ।
करे घोटाला रात को । गुंडे मालामाल है।
रंक गिरा मझधार मे ।
महँगाई की मार में ।काढ़ी उनकी खाल है ।
आतंकी आधार पर ।
होते रहे शिकार पर । छुपे रह गये व्याल है ।
इन्हें फ़िक्र क्या शेष का ।
मोल करेगे देश का । टेड़ी इनकी चाल है ।
देश बन्धु !हर मामला
डटकर करो मुकाबला ।तन मन धन काल है।
®राम केश मिश्र
Read Complete Poem/Kavya Here तेवरी।चारो तरफ़ बवाल है ।मन
न जाने किस उधेड़-बुन में रहता है..
ये मन हर दिन इक नई कहानी रचता है…
कभी वक़्ता तो कभी श्रोता है…
अपनी कहानी ख़ुद ही कहता है
और ख़ुद ही सुनता है…..
न जाने किस उधेड़-बुन में रहता है..
ये मन हर दिन इक नई कहानी रचता है…
साथ चलता है मेरे साथ,
मेरे ख़यालों का क़ाफ़िला…
रहता है फ़िराक़ में
इक अनजाने से सफ़र का..
इक अनदेखे चौराहे,
इक गली, इक डगर का…
न जाने किस उधेड़-बुन में रहता है..
ये मन हर दिन इक नई कहानी रचता है…
ऐसा होता, वैसा होता…
कब, क्यों और कैसा होता…
लगा रहता है अपने ही जोड़-गणित में…
ख़ुद ही क्या लिख लेता है,
क्या पढ़ लेता है…
कभी तो ख़ुद से रूठ जाता है..
तो कभी ख़ुद ही को मना लेता है..
न जाने किस उधेड़-बुन में रहता है..
ये मन हर दिन इक नई कहानी रचता है…
होली का त्यौहार है
अम्मा बड़ी हताश हैं पप्पू बहुत उदास।
सत्ता का घोड़ा छुटा, छुटी हाथ से रास।।
रंग बदरंग हो गये।
खोपड़े तंग हो गये।।
जनाधार को खिसकता देख रहे अखितेश।
अफसर भुगतेंगे अगर हार गये वह रेस।।
नतीजा जो भी आये।
हिले कुर्सी के पाये।।
अनुमानों की रेस में हाथी का है क्रेज।
बीजेपी भी धार से लगती है लबरेज।।
पास आया सन सत्रह।
कांग्रेस करे दुराग्रह।।
पगड़ी वाले छुटे तो मिले केजरीवाल।
गठे चुटकुले इस तरह बन गयी एक मिसाल।।
फंसे हैं ऑड इवेन में।
बसे हर दल के मन में।
लालू और नितीश की खिचड़ी बड़ी कमाल।
धरी रही मैनेजरी उतर गयी सब खाल।।
अमित जी कला खा गये।
विरोधी किला पा गये।।
होली देहरादून में रंगीली इस बार।
रंग चले कुछ इस तरह संकट में सरकार।।
वेवफा कुर्सी भइया।
डुबाये किसकी नैया।।
अन्ना जी खामोश हैं रामदेव वाचाल।
टीवी पर वह बेचते तरह तरह का माल।।
लगा मैगी पर ताला।
योग संग बिके मशाला।।
रँग जेएनयू में बंटे लिए बाल्टी आव।
देशद्रोह से पगे हैं गुझिया पापड़ खाव।।
राहुल जी के मन भाए।
कन्हैया घर हो आये।।
होली का त्यौहार है मेलजोल की रस्म।
उर की कटुता आज से होनी चाहिय भस्म।।
प्रेम की जय जय बोलो।
कर्म में मिश्री घोलो।।
बुधवार, 23 मार्च 2016
ग़ज़ल (होली )
ग़ज़ल (होली )
मन से मन भी मिल जाये , तन से तन भी मिल जाये
प्रियतम ने प्रिया से आज मन की बात खोली है
मौसम आज रंगों का छायी अब खुमारी है
चलों सब एक रंग में हो कि आयी आज होली है
ले के हाथ हाथों में, दिल से दिल मिला लो आज
यारों कब मिले मौका अब छोड़ों ना कि होली है
क्या जीजा हों कि साली हों ,देवर हो या भाभी हो
दिखे रंगनें में रंगानें में , सभी मशगूल होली है
ना शिकबा अब रहे कोई , ना ही दुश्मनी पनपे
गले अब मिल भी जाओं सब, आयी आज होली है
प्रियतम क्या प्रिया क्या अब सभी रंगने को आतुर हैं
चलो हम भी बोले होली है तुम भी बोलो होली है .
ग़ज़ल (होली )
मदन मोहन सक्सेना
Read Complete Poem/Kavya Here ग़ज़ल (होली )माँ
माँ तु हि है जन्म दाता,
तेरे बिना जीवन खटकाता।
हाथ पकड़ कर चलना सिखाया,
गीली बिस्तर से सुखे में सुलाया।
पढाई में मदद कर के महान बनाया,
सब ने तेरे रुप में ही खुदा पाया।
अंधेरी रात में लोरी देकर दुःख को दुर भगाया,
निंद्रा के सपनो को दुनिया में तुने दिखाया।
जब में रोया तो तेरी आँख में आँसु आए,
जब हँसा फिर भी तेरी आँख में आँसु आए!
मंज़ील का रास्ता मैं भूल गया था,
उसे तु ने ही पार लगाया।।
माँ तु हि है जन्म दाता…,
© Mayur Jasvani
2012
होली की आप सभी को सपरिवार हार्दिक शुभकामनाये ....!!
होली की आप सभी को सपरिवार हार्दिक शुभकामनाये ….!!
तन भी रंग लो मन भी रंग लो
आया त्यौहार ख़ुशी मनाने का
भुलाकर सारे राग द्वेष ह्रदय से
होली त्यौहार है गले लगाने का !!
!
!
!
डी. के निवातियाँ___@@@
शादी का निमंत्रण(व्यंग)
शादी का कार्ड घर आया l
मैंने भाग्यवान को समझाया l
शादी में शगुन तो जाना है l
सब को साथ लेकर जाना हैll
शादी आई ………………………..
बारात गेट पर आ गयी सब नाचे गाये l
कैमरे के आगे हम भी दुमका लगाये ll
गेट में घुसते ही चेहरे पर मुस्कान आई l
मौका मिला, खोमचे की और दौड़ लगाई ll
परिवार से कहा जो जिसे पसंद है खाओ l
आखिर शगुन तो वसूल करके आओ ll
टिक्की ,भल्ले ,पापड़ी सबके पत्ते उड़ाए l
बीच में अपनों से नज़रे मिलाते जाये ll
हाथ में थी पाव-भाजी ,मुँह था खुला l
आगे क्या खाना है सूखा या तला ll
भर गया पेट पर नियत ना भर पायी l
गर्म काफी के ऊपर ठंडी कुल्फी खाई ll
खिलाकर बनावटी मुस्कान चेहरे पर
एक दूजे को सब अपनापन दिखाए l
नास्ता करो ! कहकर अपना पीछा छुड़ाए ll
खाया पिया फिर चलने को हुए तैयार l
शगुन से जयादा वसूला, किया नमस्कार ll
——————-
Read Complete Poem/Kavya Here शादी का निमंत्रण(व्यंग)कुछ
कुछ दबी हुई ख़्वाहिशें है
कुछ मंद मुस्कुराहटें
कुछ खोए हुए सपने है
कुछ अनसुनी आहटें
कुछ दर्द भरे लम्हे है
कुछ सुकून भरे लमहात
कुछ थमें हुए तूफ़ाँ हैं
कुछ मद्धम सी बरसात
कुछ अनकहे अल्फ़ाज़ है
कुछ नासमझ इशारे
कुछ ऐसे मझदार हैं
जिनके मिलते नहीं किनारे
कुछ उलझनें है ज़िंदगी की
कुछ कोशिशें बेहिसाब
कुछ ऐसे सवालात हैं
जिनके मिलते नहीं जवाब
निशा
Read Complete Poem/Kavya Here कुछमंगलवार, 22 मार्च 2016
बाबाओं का जमाना
आजकल का जमाना
बाबाओं का जमाना है
नेता भी कमा चुके
अभिनेता भी कमा चुके
अब बाबाओं ने कमाना है
सर इतना भी न झुका कर चलो ....
सर इतना भी न झुका कर चलो की खुद की नजरों में तुम्हारा सम्मान गिर जाये
सर इतना भी न उठा कर चलो की गैरों की नजर में तुम्हारा सम्मान गिर जाये
Read Complete Poem/Kavya Here सर इतना भी न झुका कर चलो ....मानव अहन्कार किस बात पर
मानव जाति को है आज किस बात पर अहन्कार!
किस प्रगति पर गर्व किया !
क्योकि हमने दूर ग्रहो मे यात्रा किया
या फिर अन्तरीक्श मे आधिपत्य जमाया
अणु से परमाणो बनाया ?
रट लगाते रहे सत्य और अहिसा का और अपनो का क्त्ल किया !
धरम परिवर्तन करवाया, मन्दीर मस्जीद तोड्वाया
नारी जाति पर जूल्म किया
दलितो, गरीबो को लेकर राजनीति खेला
फिर भी कहते है कि हम प्रगति के राह चल चला
जब तक न हो मानव मन का विकास
सारी प्रगति लगेगी वक्वास १
मानव कर रहे वो क्रित्य
जो न करे जानवर-रे मानव!दानवी प्रव्रिती त्याग कर
न जा सके अगर महामानव बनने की ओर
अन्त्ततः जीए हम मानव बनकर !!
“वर्तमान की विडंबना"
हर राष्ट्रवादी रों पड़ा,
उन छात्रों के काले करतूतों से,
हर भारतीय शर्म से पानी हुआ,
उन देशद्रोह के नारों से ।
देश का नमक खा कर भी तुम,
देश के टुकड़े चाहते हो,
अगर "अफज़ल” को आदर्श मानते हो
तो "कलाम” के देश के क्यों रहेते हो ।
दोगलेपन की दहलीज़ पे खड़े रहकर,
समानता की बातें करते हो,
जिस संविधान से आतंकियों को सज़ा मिली,
उस महामहिम को चुनौती देते हो ।
अलगाववाद के राग आलापते रहेंगे,
अभिव्यक्ति के नाम पे,
गरीबों के ठेकेदार बनते रहेंगे,
आज़ादी के नाम पे ।
समाजवाद के नाम पे सिर्फ सत्ता की रोटियाँ शेकना आता है,
पर भारत में तो समाजवाद राष्ट्रवाद क दुश्मन बन जाता है ।
इस गद्दार गिरोह ने तो सब्र की सीमाएँ लाँघ दी,
जब सेना के जवानों की बलात्कारियो से तुलना की ।
वीरों की विजयगाथा की जगह,
कायरों की वाहवाही होती है यहाँ,
शहीदों के सम्मान की जगह,
जयचंदो की जयकार होती है यहाँ ।
अगर "वंदे मातरम्” बोलने में विचारधारा बिच में आती है,
तो खून की जाँच करवालो अपने, क्योंकि खून नहीं वो पानी है ।
अब ऐसी परिस्थितियों में भी अगर खून तुम्हारा नही खौला,
तो समज लेना के खून में तुम्हारे देशप्रेम का एक कतरा भी नही बचा ।
कितना बदल गया जमाना
पूरी् मानव जाति है आज किन्कर्त्व्यविमुर्
जीवन के वास्तविक मुल्यो का अवमुल्यन कर
हम कर रहे है अपना सर्वस्व न्योच्चावर
उन सारे कामो पर-
जिसमे मिलती खनिक सन्तुस्टी
पर मानव मन यहा भट्क जाती
स्पर्धा, दिखावे और चमत्कारी मे;
आज सत्य की मर्यादा नही
सभ्य असभ्य की पहचान नही
मानव सभ्यता का पतन है या ऊथान
निश्चित तो नही अपितू यह है सत्यमेव
की हम न बन पाये सही इन्सान !
ZINDGI
ज़िंदगी
मालूम नहीं क्यूँ है तुझसे प्यार ज़िंदगी,
लेकिन मै कर रहा हूँ बेशुमार ज़िंदगी ||
रोज़ वही बातें है रोज़ वो ही किस्से ,
तू हो गयी है रोज़ का अखबार ज़िंदगी ||
कभी बिकता कभी खरीदता हर एक शख्स देखा,
तू रह गई है बनके एक बाजार ज़िंदगी ||
मौत मारती है बस एक आखिरी दिन ,
तू कर रही है रोज़ ही शिकार ज़िंदगी ||
लगने लगा है आजकल डर सा मुझे तुझसे ,
चेहरे को अपने थोड़ा तो संवार ज़िंदगी ||
कब से वही थमी सी खडी रह गई है तू,
कुछ तो बढ़ा तू अपनी रफ़्तार ज़िंदगी ||
कर ले तैयार जख्म कोई आज तू फिर से,
फिर आ रहा है मुझको कुछ करार ज़िंदगी ||
रो – रो के देना होगा तुझे फिर हिसाब इनका,
तूने ले रखी हैं खुशियाँ फिर उधार ज़िंदगी ||
होली प्रेम गीत ..........(साजन सजनी प्रेम तकरार )
(साजन सजनी प्रेम तकरार )
(सजनी)
जा रे जा रे जा रे पिया रे
जा रे जा रे जा रे पिया रे
मेरे प्यार की कद्र न जानी
फिर क्यों तेरे संग में डोलू
तेरे संग मै न होली खेलू ,जा रे जा रे जा रे पिया रे !!
तेरे संग मै न होली खेलू ,जा रे जा रे जा रे पिया रे !!
(साजन)
सुनरी सजनी, तू क्यों रूठे
तू जो रूठे, मेरा दिल टूटे
जब तक तुझ पे रंग न डालू
कैसे मनेगी मेरी होली रे …
मै तो तेरे संग होली खेलू आ रे आ रे आ रे पिया रे !!
मै तो तेरे संग होली खेलू आ रे आ रे आ रे पिया रे !!
(सजनी)
तेरी यादो से रोज रंगी मैं
फिर भी तूने नजर न डारी
मेरे प्यार का असर नही है
फिर क्यों रंगू मै तेरे रंग रे
तेरे संग मै न होली खेलू ,जा रे जा रे जा रे पिया रे !!
तेरे संग मै न होली खेलू ,जा रे जा रे जा रे पिया रे !!
(साजन)
ख्यालो में तू मेरे ख्वाबो में तू
मेरे नयनो में बसी तस्वीर तेरी
तेरे बिन मेरा ये जीवन सूना
तुझ से ही मेरी तकदीर जुडी
मै तो तेरे संग होली खेलू आ रे आ रे आ रे पिया रे !!
मै तो तेरे संग होली खेलू आ रे आ रे आ रे पिया रे !!
(सजनी)
झूठे तेरे चाहत के वादे , इरादे
तुझे लुभाने किये कितने बहाने,
अब ना करू कोई शिकवा शिकायत
कोई नया बहाना अब ना खोजू
तेरे संग मै न होली खेलू ,जा रे जा रे जा रे पिया रे !!
तेरे संग मै न होली खेलू ,जा रे जा रे जा रे पिया रे !!
(साजन)
तू ही तो मेरे जीवन की रानी
किसने तेरे मन में शंका डाली
शिकवा शिकायत तेरा हक़ है
इसका कभी मै बुरा नहीं मानू
मै तो तेरे संग होली खेलू आ रे आ रे आ रे पिया रे !!
मै तो तेरे संग होली खेलू आ रे आ रे आ रे पिया रे !!
(साजन सजनी)
हाँ री सजनी, हाँ रे सजना
आज जी भर के दूजे पर
हम रंग डाले बनके रसिया,
होली का हमको नही इंतज़ार
आजा रे आजा रे अपने रंग में रंग दे मेरा जिया रे !!
जा रे जा रे जा रे पिया रे ..जा रे जा रे जा रे पिया रे !!
आजा रे आजा रे आजा रे….रंग से रंग दे मेरा जिया रे !!
जा रे जा रे जा रे पिया रे ..जा रे जा रे जा रे पिया रे !!
!
!
!
डी. के. निवातियां
कितने निराले थे वो बचपन के खेल !!
बारिश के पानी में
चलती कागज़ की कश्ती
महीन धागो पर
चलती माचिस की रेल
कितने निराले थे वो बचपन के खेल !!
बिन मौसम की
बारिश में ओले गिरते
चाव से समेटकर
उन्हें रखने में होते फेल
कितने निराले थे वो बचपन के खेल !!
परनाला रोक
छत पर पानी भरना
भीगते हुए फिर
उसमे मस्ती से जाते लेट
कितने निराले थे वो बचपन के खेल !!
बहरी दुपहरी में
घर से निकलना
पोखर में नहाकर
खाते झाडी के बेर
कितने निराले थे वो बचपन के खेल !!
पेड़ के पीछे खड़े हो
लगाते लम्बी सी टेर
हाथो से बंधकर
बनाते लम्बी सी बेल
कितने निराले थे वो बचपन के खेल !!
गाँव मोहल्ले की
वो संकरी गलिया
जिनमे छुप छुप खेले
चोर सिपाही के खेल
कितने निराले थे वो बचपन के खेल !!
टोली में निकलते
करते जंगल की सैर
अमवा की छावँ
बैठ कर खाते थे बेल
कितने निराले थे वो बचपन के खेल !!
!
!
!
डी. के. निवातियां_______@@@
Read Complete Poem/Kavya Here कितने निराले थे वो बचपन के खेल !!महेन की बुझती ज्योति
आज दुल्हन के लाल जोड़े मे,
उसे सखियों ने सजाया होगा .
मेरी जान के गोरे हाथो को
मेहँदी से रचाया होगा
गहरा होगा मेहँदी का रंग
उसमे नाम छुपाया होगा
रह रह कर वो रोई होगी
जब भी ख्याल मे आया होगा
दर्पण मे खुद को देखकर
अक्स मेरा ही पाया होगा
परी सी लग रही होगी वो आज
मगर कैसे खुद को समझाया होगा
अपने हाथो से उसने आज
खतो को मेरे जलाया होगा
मजबूत खुद को करके उसने
यादों को मेरी मिटाया होगा