घोर चिन्ता मे आज मानव मन
देख बदलते पर्यवरण;
प्रक्रिति ने जताई आपत्ति
देकर पर्यावरण मे विपति;
मानव न सोचा न जाना
प्रक्रति को ललकारा
काट दिये सारे जगल
अब कहते है लगाओ जगल
जगल मे ही है मन्गल
रोक दिए नदीयो के चाल!
देख बदलते पर्यावरण
घोर चिन्ता मे मानव मन
किन्तु मानव है स्वार्थी,बेदर्दी,
पस्चाए तब जब निक्ले अर्थी
अब पस्च्ताए क्या होत जब चिरईया
चुग गयी खेत !
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