शनिवार, 30 जून 2012
एक ग़रीब का अकेलापन / असद ज़ैदी
एक ग़रीब का अकेलापन
उसके ख़ाली पेट के सिवा कुछ नहीं
अपनी दार्शनिक चिन्ता में
दुहराता हूँ मैं यही एक
उसके ख़ाली पेट के सिवा कुछ नहीं
अपनी दार्शनिक चिन्ता में
दुहराता हूँ मैं यही एक
दिल्ली की नगरिकता / असद जैदी
(विश्वनाथ और हरीश के लिए )
जैसी पाँचवीं कक्षा में गणित मेरे लिए वैसी इस शहर में भीड़ थी
फ़्लैशबैक ख़त्म हुआ ।
जैसी पाँचवीं कक्षा में गणित मेरे लिए वैसी इस शहर में भीड़ थी
फ़्लैशबैक ख़त्म हुआ ।
घंटी / असद जैदी
धरती पर कोई सौ मील दूर सुस्त कुत्ते की तरह पड़ा हमारा दर्द
अचानक आ घेरता है नए शहर में
तेज़-रफ़्तार वाहन पर
अचानक आ घेरता है नए शहर में
तेज़-रफ़्तार वाहन पर
नाई/ असद जैदी
एक दिन दाढ़ी बनवाते हुए
मैं उस्तरे के नीचे सो गया
कई बार ऎसा होता है
कि लोग हजामत बनवाते हुए
सो जाते हैं
उस्तरे,
मैं उस्तरे के नीचे सो गया
कई बार ऎसा होता है
कि लोग हजामत बनवाते हुए
सो जाते हैं
उस्तरे,
पुस्तैनी तोप /असद जैदी
आप कभी हमारे यहाँ आकर देखिए
हमारा दारिद्रय कितना विभूतिमय है
एक मध्ययुगीन तोप है रखी हुई
जिसे काम में लाना बड़ा
हमारा दारिद्रय कितना विभूतिमय है
एक मध्ययुगीन तोप है रखी हुई
जिसे काम में लाना बड़ा
शुक्रवार, 29 जून 2012
मन अब तो जाग / शिवदीन राम जोशी
सांकल ज्ञान की तौरत है गजराज यो धूम मचावत है |
अहिराज तुरंग कहूँ क्या कहूँ धमकावें तो मारने धावत है
अहिराज तुरंग कहूँ क्या कहूँ धमकावें तो मारने धावत है
शेर१५- असर लखनवी
(1)
यह महवीयत1 का आलम है, किसी से भी मुखातिब हूँ,
जुबाँ पर बेतहाशा2 आप ही का नाम आता है।
(2)
यह सोचते रहे और बहार खत्म
यह महवीयत1 का आलम है, किसी से भी मुखातिब हूँ,
जुबाँ पर बेतहाशा2 आप ही का नाम आता है।
(2)
यह सोचते रहे और बहार खत्म
शेर ९- असर लखनवी
(1)
दिल को बर्बाद किये जाती है,गम बदस्तूर1 किये जाती है,
मर चुकीं सारी उम्मीदे, आरजू है कि जिये जाती है।
(2)
देखो न
दिल को बर्बाद किये जाती है,गम बदस्तूर1 किये जाती है,
मर चुकीं सारी उम्मीदे, आरजू है कि जिये जाती है।
(2)
देखो न
शेर ८- असर लखनवी
(1)
ताइरे-जाँ!1 कितने ही गुलशन तेरे मुश्ताक2 है,
बाजुओं में ताकते - परवाज3 होना चाहिए।
(2)
तुझको है फिक्रे-तनआसानी4
ताइरे-जाँ!1 कितने ही गुलशन तेरे मुश्ताक2 है,
बाजुओं में ताकते - परवाज3 होना चाहिए।
(2)
तुझको है फिक्रे-तनआसानी4
शेर ७- असर लखनवी
(1)
जबीने1-सिज्दा में कौनेन2 की वुसअत3 समा जाए,
अगर आजाद हो कैदे - खुदी4 से बंदगी5 अपनी।
(2)
जिन खयालात से हो जाती है
जबीने1-सिज्दा में कौनेन2 की वुसअत3 समा जाए,
अगर आजाद हो कैदे - खुदी4 से बंदगी5 अपनी।
(2)
जिन खयालात से हो जाती है
शेर ६-असर लखनवी
(1)
घुट-घुट के मर न जाए तो बतलाओ क्या करे,
वह बदनसीब जिसका कोई आसरा न हो।
(2)
चाल वह दिलकश जैसे आये,
ठंडी हवा में नींद
घुट-घुट के मर न जाए तो बतलाओ क्या करे,
वह बदनसीब जिसका कोई आसरा न हो।
(2)
चाल वह दिलकश जैसे आये,
ठंडी हवा में नींद
शेर ५- असर लखनवी
(1)
ख्वाब बुनिए, खूब बुनिए, मगर इतना सोचिए,
इसमें है ताना ही ताना, या कहीं बाना भी है।
(2)
गम नहीं तो लज्जते1-शादी2
ख्वाब बुनिए, खूब बुनिए, मगर इतना सोचिए,
इसमें है ताना ही ताना, या कहीं बाना भी है।
(2)
गम नहीं तो लज्जते1-शादी2
शेर ४- असर लखनवी
(1)
खुद ही सरशारे - मये- उल्फत1 नहीं होना 'असर',
इससे भर-भर कर दिलों के जाम छलकाना भी है।
(2)
खुद मेरी जौके-असीरी2 ने मुझे
खुद ही सरशारे - मये- उल्फत1 नहीं होना 'असर',
इससे भर-भर कर दिलों के जाम छलकाना भी है।
(2)
खुद मेरी जौके-असीरी2 ने मुझे
शेर ३-असर लखनवी
(1)
उस घड़ी देखो उसका आलम1,
नींद में जब हो आंख भारी।
(2)
कभी मौत कहती है अलहजर2, कभी दर्द कहता है रहम3 कर,
मैं वह राह चलता
उस घड़ी देखो उसका आलम1,
नींद में जब हो आंख भारी।
(2)
कभी मौत कहती है अलहजर2, कभी दर्द कहता है रहम3 कर,
मैं वह राह चलता
शेर २- असर लखनवी
(1)
इश्क है इक निशाते1-बेपायाँ2,
शर्त यह है कि आरजू न हो।
(2)
उन लबों पै झलक तबस्सुम3 की,
जैसे निकहत 4में जान पड़
इश्क है इक निशाते1-बेपायाँ2,
शर्त यह है कि आरजू न हो।
(2)
उन लबों पै झलक तबस्सुम3 की,
जैसे निकहत 4में जान पड़
शेर १- असर लखनवी
(1)
अच्छा है डूब जाये सफीना1 हयात2 का,
उम्मीदो-आरजूओं का साहिल3 नहीं रहा।
(2)
अपने वो रहनुमा 4 हैं कि मंजिल तो
अच्छा है डूब जाये सफीना1 हयात2 का,
उम्मीदो-आरजूओं का साहिल3 नहीं रहा।
(2)
अपने वो रहनुमा 4 हैं कि मंजिल तो
गुरुवार, 28 जून 2012
मैं लाचार हूँ , मेरी आत्मा मर चुकी है
मैं लाचार हूँ , मेरी आत्मा मर चुकी है |
१. मुझसे क्या कहते हो
क्या मैं तुम्हें या
तुम मुझे जानते हो ?
..हाँ जानता हूँ
१. मुझसे क्या कहते हो
क्या मैं तुम्हें या
तुम मुझे जानते हो ?
..हाँ जानता हूँ
क्या जमाना आगया / शिवदीन राम जोशी
करते संसार में बारूद बिछी, कब आग लग जाए |
भडाका एक ही होगा, किसे अब कौन समझाए ||
देश में नेता ना कोई काम करते हैं
भडाका एक ही होगा, किसे अब कौन समझाए ||
देश में नेता ना कोई काम करते हैं
क्या जमाना आगया / शिवदीन राम जोशी
करते संसार में बारूद बिछी, कब आग लग जाए |
भडाका एक ही होगा, किसे अब कौन समझाए ||
देश में नेता ना कोई काम करते हैं
भडाका एक ही होगा, किसे अब कौन समझाए ||
देश में नेता ना कोई काम करते हैं
पलक का ये इशारा है इन आँखों में आब न देखूँ
पलक का ये इशारा है इन आँखों में आब न देखूँ
के आँखों से तो सब देखूँ मगर कोई ख्वाब न देखूँ
निगाह-ए-शौक को तन्हा करूँ
के आँखों से तो सब देखूँ मगर कोई ख्वाब न देखूँ
निगाह-ए-शौक को तन्हा करूँ
बुधवार, 27 जून 2012
आदिवासी 2
आदिवासी - 2
वे नहीं जानते कौन है
उन आदिम गीतों के रचयिता
जिसे गुनगुना रहे हैं बचपन से
उन्हें नहीं पता कौन
वे नहीं जानते कौन है
उन आदिम गीतों के रचयिता
जिसे गुनगुना रहे हैं बचपन से
उन्हें नहीं पता कौन
मंगलवार, 26 जून 2012
तन धन जोबन / शिवदीन राम जोशी
तन धन जोबन थिर नहीं, मुरख करे गुमान,
ए मन नर तन पायके, कर सबका सनमान |
कर सबका सनमान, पावणा है दो दिन का,
राम नाम उर धार,
ए मन नर तन पायके, कर सबका सनमान |
कर सबका सनमान, पावणा है दो दिन का,
राम नाम उर धार,
सोमवार, 25 जून 2012
रंग बरसत ब्रज में होरी का / शिवदीन राम जोशी
रंग बरसत ब्रज में होरी का |
बरसाने की मस्त गुजरिया, नखरा वृषभानु किशोरी का ||
गुवाल बाल नन्दलाल अनुठा, वादा करे
बरसाने की मस्त गुजरिया, नखरा वृषभानु किशोरी का ||
गुवाल बाल नन्दलाल अनुठा, वादा करे
खोज
खोज जारी है
गुजरे हुए वक्त के
उन सवालों की
जो अनछुए अनकहे रह गए
प्रतीक्षा है सुख की
दुख में खोज जारी है
पहुँच
गुजरे हुए वक्त के
उन सवालों की
जो अनछुए अनकहे रह गए
प्रतीक्षा है सुख की
दुख में खोज जारी है
पहुँच
खोज
खोज जारी है
गुजरे हुए वक्त के
उन सवालों की
जो अनछुए अनकहे रह गए
प्रतीक्षा है सुख की
दुख में खोज जारी है
पहुँच
गुजरे हुए वक्त के
उन सवालों की
जो अनछुए अनकहे रह गए
प्रतीक्षा है सुख की
दुख में खोज जारी है
पहुँच
मिहरा बरसत वृन्दावन में / शिवदीन राम जोशी
मिहरा बरसत वृन्दावन में |
तन राधा का मस्त लहरिया, भीगा मन मोहन में ||
छम-छम छम-छम पायल बाजे, चलत चाल श्रीराधे
तन राधा का मस्त लहरिया, भीगा मन मोहन में ||
छम-छम छम-छम पायल बाजे, चलत चाल श्रीराधे
मैं ऐसा न था ............जो तुने मुझे बना दिया
१. मैं ऐसा न था
जो तुने मुझे बना दिया |
२. वाहिद सा , ज़रिया-ए-इज़हार से अनजान
जाने ! कब तूने इश्क करना सिखा दिया |
मैं
जो तुने मुझे बना दिया |
२. वाहिद सा , ज़रिया-ए-इज़हार से अनजान
जाने ! कब तूने इश्क करना सिखा दिया |
मैं
"अभी सांसे शेष हैं"
अन्दर के अंधेरो से होकर,
आती है कुछ किरणे;
मेरे घर के आँगन में |
प्रकाशमय लकीरें खिच जाती ,
भीतर के शुन्य तिमिर में
आती है कुछ किरणे;
मेरे घर के आँगन में |
प्रकाशमय लकीरें खिच जाती ,
भीतर के शुन्य तिमिर में
रविवार, 24 जून 2012
माही
क्यूँ स्वप्न सलोने जगते हैं ये
जब नन्ही परियाँ सो गयी हैं
तन व्याकुल सा समय क्या देखे
अब मन की घड़ियाँ खो गयी
जब नन्ही परियाँ सो गयी हैं
तन व्याकुल सा समय क्या देखे
अब मन की घड़ियाँ खो गयी
आगमन
बहुत बरसों बाद
अचानक जब हम आएँगे अपने घर
किस तरह होगा हमारा स्वागत ?
क्या हमारे आगमन पर
लोगों के मुँह से चीख निकल
अचानक जब हम आएँगे अपने घर
किस तरह होगा हमारा स्वागत ?
क्या हमारे आगमन पर
लोगों के मुँह से चीख निकल
क्यों कि यह समय जैसा ही कुछ हो सकता है
कौन गा रहा है यह मेरे भीतर ?
कौन रो रहा है निःशब्द ?
घिरती है शाम।
पेडों के जिस्म उदासी में हिलते हैं।
एक धूमिल होते
कौन रो रहा है निःशब्द ?
घिरती है शाम।
पेडों के जिस्म उदासी में हिलते हैं।
एक धूमिल होते
फूल, ख़ुशी, पैंसिलें
लोग घरों में उगाते हैं
फूल
सिर्फ़ अपनी खुशी के लिए
मैंने बहुधा
इस मनोविज्ञान को ले कर सोचा है
और हर बार चुप हो
फूल
सिर्फ़ अपनी खुशी के लिए
मैंने बहुधा
इस मनोविज्ञान को ले कर सोचा है
और हर बार चुप हो
तबादला
बहुत दिनों बाद आश्चर्य में घिरते
फिर से लौटना उसी शहर में
बस की चैकोर खिड़की में नहीं समाती नई नई इमारतें
कल तक
फिर से लौटना उसी शहर में
बस की चैकोर खिड़की में नहीं समाती नई नई इमारतें
कल तक
उजड़े हुए घर
हमने कहीं देखे थे
वे घर
जिनमें अब कोई नहीं रहता
खुले पड़े दरवाज़े इन्तजार थे और
सूखे हुए
पीपल के पत्ते सीढि़यों
वे घर
जिनमें अब कोई नहीं रहता
खुले पड़े दरवाज़े इन्तजार थे और
सूखे हुए
पीपल के पत्ते सीढि़यों
यज्ञ-प्रश्न
घर लौट कर
देखता हूँ
बदला हुआ नक्शा
बिखरे हुए खिलौने
जमा दिये हैं किसी ने
नल टपक रहा है
रोशनियाँ ग़ायब
और
देखता हूँ
बदला हुआ नक्शा
बिखरे हुए खिलौने
जमा दिये हैं किसी ने
नल टपक रहा है
रोशनियाँ ग़ायब
और
आँसू
साहित्यिक मूल्यों की दृष्टि से आँसुओं में छिपा रहता है
अक्सर किसी अधलिखी कविता या कहानी का अंश
जीवविज्ञान के
अक्सर किसी अधलिखी कविता या कहानी का अंश
जीवविज्ञान के
रात
यह कोई दूसरा नक्षत्र ही है बहुत सारे प्रयोजनों के लिए
प्रकाश में हम जिस दुनिया से परिचित थे
वह तो पश्चिम के
प्रकाश में हम जिस दुनिया से परिचित थे
वह तो पश्चिम के
किसी और दिन के लिए
इस वक्त जैसा भी जो कुछ भी मेरे पास है और
नहीं है उसी से शुरू करूँगा मैं
कि यह है एक रात और दो बज चुके हैं
क़ायदे से अब
नहीं है उसी से शुरू करूँगा मैं
कि यह है एक रात और दो बज चुके हैं
क़ायदे से अब
कहाँ है लालटेन
यह कौन सा दिन है मेरे भीतर झिलमिलाता हुआ ?
क्या यह एक प्रतीक्षा है किसी प्रेम के अँधेरे की,
जिसमें तुम एक उजाले की
क्या यह एक प्रतीक्षा है किसी प्रेम के अँधेरे की,
जिसमें तुम एक उजाले की
लालटेन
लालटेन-1
वह, जो डबडबा गया है भीतर बुझती रोशनी का आलोक,
चाहेंगे हम तत्क्षण उसे किसी बचाये हुए काव्यार्थ से
वह, जो डबडबा गया है भीतर बुझती रोशनी का आलोक,
चाहेंगे हम तत्क्षण उसे किसी बचाये हुए काव्यार्थ से
प्रवास-काठियावाड
झुर्रियों से भरती काली धरती।
लम्बा होता क़द दोपहर का।
बढ़ने की जल्दी नहीं है अगर किसी को
तो वे बस पेड़ हैं-
जो
लम्बा होता क़द दोपहर का।
बढ़ने की जल्दी नहीं है अगर किसी को
तो वे बस पेड़ हैं-
जो
माँ
दुर्गम पहाड़ों के परे अबाध झरनों के पार
बीहड़ जंगलों के आखिरी किनारे पर
अकेली रहती है जो स्त्री
वही शायद हम सब की
बीहड़ जंगलों के आखिरी किनारे पर
अकेली रहती है जो स्त्री
वही शायद हम सब की
सबसे विश्वसनीय खबर
हिल रही है
धूप में जो शाख़
चिडि़यों के लिए
फरवरी की हवा में
वही है
विश्वसनीय ख़बर
दुनिया नष्ट नहीं होगी
किसी
धूप में जो शाख़
चिडि़यों के लिए
फरवरी की हवा में
वही है
विश्वसनीय ख़बर
दुनिया नष्ट नहीं होगी
किसी
चीटियाँ
चीटियाँ मृत्यु तक सर्वशक्तिमान हैं
भूमि पर स्थित हर चीज़ तक उनकी पहुँच है
वे जानती हैं मनुष्य की क्षुद्र और
भूमि पर स्थित हर चीज़ तक उनकी पहुँच है
वे जानती हैं मनुष्य की क्षुद्र और
नींद
समय जैसा वह कुछ भी नहीं था जिसे बीतना पड़ता
जिन शरीरों के भीतर से दोपहर को गुज़रना पड़ा
कदाचित् वे भी हमारे न
जिन शरीरों के भीतर से दोपहर को गुज़रना पड़ा
कदाचित् वे भी हमारे न
सवेरे की चाय
आज तीन मई उन्नीस सौ अठ्यासी है मंगलवार
गर्मी के दिन हैं पंचांग के अनुसार ज्येष्ठ कृष्ण द्वितीया
और घड़ी में छः
गर्मी के दिन हैं पंचांग के अनुसार ज्येष्ठ कृष्ण द्वितीया
और घड़ी में छः
आँधी
आँधी एक शब्द ही नहीं हादसा है
किसी प्रकोप किसी अतीत किसी महीने की पौध हमारे भीतर उगाती हुई
यह घडि़यों से गायब कर
किसी प्रकोप किसी अतीत किसी महीने की पौध हमारे भीतर उगाती हुई
यह घडि़यों से गायब कर
अज्ञातवास से लौट कर
अपने हर अज्ञातवास पर
हम थे पहाड़ जैसे निष्कंप किंतु भीतर से ओस जैसे आर्द्र
खेद और प्रतीक्षा में निकल रहे थे
हम थे पहाड़ जैसे निष्कंप किंतु भीतर से ओस जैसे आर्द्र
खेद और प्रतीक्षा में निकल रहे थे
मैं मिलूंगा तुमसे
इसी जन्म में
मैं तुम से मिलूँगा किसी दिन
डाक में जैसे मिलती है चिट्ठी
हाथों से मिलते हैं दस्ताने
डायरी में मिल
मैं तुम से मिलूँगा किसी दिन
डाक में जैसे मिलती है चिट्ठी
हाथों से मिलते हैं दस्ताने
डायरी में मिल
जैसलमेर
रेत
एक दृश्य था असमाप्त
उचाट निस्संग आकाश
और बाँझ पृथ्वी के बीच टँगा हुआ
किवाड़ भेडें और गोबर लिपे आँगन
सवेरे
एक दृश्य था असमाप्त
उचाट निस्संग आकाश
और बाँझ पृथ्वी के बीच टँगा हुआ
किवाड़ भेडें और गोबर लिपे आँगन
सवेरे
जो कविता नहीं कहती
कविता कहती है सिर्फ तीन दिन बाद लोग बदल जाएँगे
पत्नियों को बेइन्तहा प्यार करने वाले और
बच्चों की इच्छाओं के लिए
पत्नियों को बेइन्तहा प्यार करने वाले और
बच्चों की इच्छाओं के लिए
जो कविता नहीं कहती
कविता कहती है सिर्फ तीन दिन बाद लोग बदल जाएँगे
पत्नियों को बेइन्तहा प्यार करने वाले और
बच्चों की इच्छाओं के लिए
पत्नियों को बेइन्तहा प्यार करने वाले और
बच्चों की इच्छाओं के लिए
स्त्री
स्त्री
(ब्राज़ील के कवि म्यूरिलो मैंडस की रचना ‘अधचिडि़या’ पढ़ कर)
अंतरिक्ष के आखिरी छोर पर खड़ी एक
(ब्राज़ील के कवि म्यूरिलो मैंडस की रचना ‘अधचिडि़या’ पढ़ कर)
अंतरिक्ष के आखिरी छोर पर खड़ी एक
जुलाई में मल्लाह
समुद्र खदक रहे हैं किसी देगची में
वे जहाज़ अब तक नहीं लौटे
जिन पर सवार थे वज्र जैसी बाँहों वाले मल्लाह
जिन के भीतर
वे जहाज़ अब तक नहीं लौटे
जिन पर सवार थे वज्र जैसी बाँहों वाले मल्लाह
जिन के भीतर
किताबें
खोल देती हैं वे हम में सदियों से बंद आँखें
उन से टपकने लगते हैं पछतावे
अपने बहुत छोटे और मामूली होने के
पन्नों पर
उन से टपकने लगते हैं पछतावे
अपने बहुत छोटे और मामूली होने के
पन्नों पर
मई की छुट्टियाँ
जब भी हवा में एक ज्वर की तरह
उतर आती है मई
पुलों और पटरियों की याद दिलाती
चन्द पीले दिन तपती चिटकनियाँ और शर्बत के
उतर आती है मई
पुलों और पटरियों की याद दिलाती
चन्द पीले दिन तपती चिटकनियाँ और शर्बत के
प्रलय से पहले चीज़ें
मामूली चीज़ों की शक्ल धर कर प्रतिदिन
असंख्य बार नियामतें दुर्निवार प्रलय के रोकती हैं
जैसे ध्यान से देखने पर
असंख्य बार नियामतें दुर्निवार प्रलय के रोकती हैं
जैसे ध्यान से देखने पर
मधुमक्खियाँ
किस आत्मलीनता में डूबी रहती हैं मधुमक्खियाँ
वे कब सोती और कब जागती हैं
निरन्तर उड़ती और गुनगुनाती ही क्यों
वे कब सोती और कब जागती हैं
निरन्तर उड़ती और गुनगुनाती ही क्यों
पुरानी चिट्ठियाँ
कोई एक पुरानी चिट्ठी
खोल देती है मुझ में अँधेरा बन्द तहख़ाना
एक संदूक जैसे खुला करता था काठ का विशालकाय
कभी बचपन
खोल देती है मुझ में अँधेरा बन्द तहख़ाना
एक संदूक जैसे खुला करता था काठ का विशालकाय
कभी बचपन
नींद में मोहनजोदड़ो
पृथ्वी की विराट् करवट में दफन है एक समूचा शहर
अपने उत्कर्ष और सम्पन्नता की लक़दक़ से थक कर सोया हुआ
न जाने उसके
अपने उत्कर्ष और सम्पन्नता की लक़दक़ से थक कर सोया हुआ
न जाने उसके
एक पर्व है घर
हर सुबह खुल जाता है घर एक छाते की तरह निःशब्द
थकी-माँदी सीढि़यों पर हमेशा इंतज़ार में मिलते हैं अखबार
दूध की
थकी-माँदी सीढि़यों पर हमेशा इंतज़ार में मिलते हैं अखबार
दूध की
पहाड़ से लौट कर
हम
जहाँ कहीं जाएँ
पहाड़ हमें बुलाएँगे
उनकी कोख से
फूटेंगे झरने
जिन के जल में हमारे लौटने की प्रतीक्षाएँ दर्ज
जहाँ कहीं जाएँ
पहाड़ हमें बुलाएँगे
उनकी कोख से
फूटेंगे झरने
जिन के जल में हमारे लौटने की प्रतीक्षाएँ दर्ज
एक नदी की स्मृति में
एक नदी की स्मृति में (मई में बनास देख कर)
देखा मैंने भरी पूरी एक नदी को अचानक सूखते हुए
जीवन में जैसे आ जाते
देखा मैंने भरी पूरी एक नदी को अचानक सूखते हुए
जीवन में जैसे आ जाते
समझ मन अवसर बित्यो जाय / शिवदीन राम जोशी
समझ मन अवसर बित्यो जाय |
मानव तन सो अवसर फिर-फिर, मिलसी कहाँ बताय ||
हरी गुण गाले प्रभु को पाले, अपने मन को तू समझाले
मानव तन सो अवसर फिर-फिर, मिलसी कहाँ बताय ||
हरी गुण गाले प्रभु को पाले, अपने मन को तू समझाले
शनिवार, 23 जून 2012
छुटकी
१. छुटकी मुट्की घुटकी
नटखट अलबेली छैलछबीली
प्यारी सी लागे उसकी अठखेली
२. गिलहरी मानो उसकी सहेली
नाच नचईया,
नटखट अलबेली छैलछबीली
प्यारी सी लागे उसकी अठखेली
२. गिलहरी मानो उसकी सहेली
नाच नचईया,
छुटकी
१. छुटकी मुट्की घुटकी
नटखट अलबेली छैलछबीली
प्यारी सी लागे उसकी अठखेली
२. गिलहरी मानो उसकी सहेली
नाच नचईया
नटखट अलबेली छैलछबीली
प्यारी सी लागे उसकी अठखेली
२. गिलहरी मानो उसकी सहेली
नाच नचईया
'कल्पना' और 'कलम'
अक्सर मैंने लम्बे अंतराल के बाद कविता लिखी | कई बार तो २-३ साल बाद ही कोई कविता लिख पाया |
इस बीच में, मन में विचार आते
इस बीच में, मन में विचार आते
माँ
माँ मॆरी है
सब सॆ सुंदर
फूल सरीखी माँ
श्रद्धा त्याग
तपस्या की
मूरत मॆरी माँ
बाधाओं सॆ
कभी ना हारॆ
ऐसी मॆरी
सब सॆ सुंदर
फूल सरीखी माँ
श्रद्धा त्याग
तपस्या की
मूरत मॆरी माँ
बाधाओं सॆ
कभी ना हारॆ
ऐसी मॆरी
माँ
माँ मॆरी है
सब सॆ सुंदर
फूल सरीखी माँ
श्रद्धा त्याग
तपस्या की
मूरत मॆरी माँ
बाधाओं सॆ
कभी ना हारॆ
ऐसी मॆरी
सब सॆ सुंदर
फूल सरीखी माँ
श्रद्धा त्याग
तपस्या की
मूरत मॆरी माँ
बाधाओं सॆ
कभी ना हारॆ
ऐसी मॆरी
नारी शक्ति
रोशनी की कीमत पहचान ली
परवाह नही अब किसी रिश्ते की
आदत नही शिकायत की
उम्मीद है सफलता की
नन्हा सपना दुआओं के असर
परवाह नही अब किसी रिश्ते की
आदत नही शिकायत की
उम्मीद है सफलता की
नन्हा सपना दुआओं के असर
तनहाई में भी खुश
जब जब भी तेरी याद मनमे उभर आई
मेरे मन खुशियाँ ही खुशियाँ भर आई
एक हसीं माहोल की तरह तू चारो और है
हर झोंके के साथ
मेरे मन खुशियाँ ही खुशियाँ भर आई
एक हसीं माहोल की तरह तू चारो और है
हर झोंके के साथ
भीतर
भीतर
देख रे प्राणी, अंदर देख
अंधेर है भीतर , फिरसे देख
क्यूँ कोस रहा है देश परदेश
तुने ही तो लिखा अपना लेख
जहाँ पे
देख रे प्राणी, अंदर देख
अंधेर है भीतर , फिरसे देख
क्यूँ कोस रहा है देश परदेश
तुने ही तो लिखा अपना लेख
जहाँ पे
भीतर
भीतर
देख रे प्राणी, अंदर देख
अंधेर है भीतर , फिरसे देख
क्यूँ कोस रहा है देश परदेश
तुने ही तो लिखा अपना लेख
जहाँ पे तो
देख रे प्राणी, अंदर देख
अंधेर है भीतर , फिरसे देख
क्यूँ कोस रहा है देश परदेश
तुने ही तो लिखा अपना लेख
जहाँ पे तो
माँ
माँ मॆरी है
सब सॆ सुंदर
फूल सरीखी माँ
श्रद्धा त्याग
तपस्या की
मूरत मॆरी माँ
बाधाओं सॆ
कभी ना हारॆ
ऐसी मॆरी
सब सॆ सुंदर
फूल सरीखी माँ
श्रद्धा त्याग
तपस्या की
मूरत मॆरी माँ
बाधाओं सॆ
कभी ना हारॆ
ऐसी मॆरी
नारी शक्ति
रोशनी की कीमत पहचान ली
परवाह नही अब किसी रिश्ते की
आदत नही शिकायत की
उम्मीद है सफलता की
नन्हा सपना दुआओं के असर
परवाह नही अब किसी रिश्ते की
आदत नही शिकायत की
उम्मीद है सफलता की
नन्हा सपना दुआओं के असर
तनहाई में भी खुश
जब जब भी तेरी याद मनमे उभर आई
मेरे मन खुशियाँ ही खुशियाँ भर आई
एक हसीं माहोल की तरह तू चारो और है
हर झोंके के साथ
मेरे मन खुशियाँ ही खुशियाँ भर आई
एक हसीं माहोल की तरह तू चारो और है
हर झोंके के साथ
भीतर
भीतर
देख रे प्राणी, अंदर देख
अंधेर है भीतर , फिरसे देख
क्यूँ कोस रहा है देश परदेश
तुने ही तो लिखा अपना लेख
जहाँ पे
देख रे प्राणी, अंदर देख
अंधेर है भीतर , फिरसे देख
क्यूँ कोस रहा है देश परदेश
तुने ही तो लिखा अपना लेख
जहाँ पे
भीतर
भीतर
देख रे प्राणी, अंदर देख
अंधेर है भीतर , फिरसे देख
क्यूँ कोस रहा है देश परदेश
तुने ही तो लिखा अपना लेख
जहाँ
देख रे प्राणी, अंदर देख
अंधेर है भीतर , फिरसे देख
क्यूँ कोस रहा है देश परदेश
तुने ही तो लिखा अपना लेख
जहाँ
शुक्रवार, 22 जून 2012
आत्मविश्वास (२) / शिवदीन राम जोशी
तीर्थ से तिरे हैं केते व्रत से तिरे हैं,
तप से तिरे हैं संत आत्मा महान से |
केते तिरे हैं योग
तप से तिरे हैं संत आत्मा महान से |
केते तिरे हैं योग
आत्म विश्वास (१) / शिवदीन राम जोशी
कांहूँ के भरोसो हीरा लाल मणि मोतियाँ को,
कांहूँ के भरोसो बल जोर है जवानी को |
कांहूँ के भरोसो
कांहूँ के भरोसो बल जोर है जवानी को |
कांहूँ के भरोसो
ये क्यूँ इस कदर ...................याद करता हूँ
ये क्यूँ इस कदर ...................
जेठ कि चुभती दोपहर में
भटकता
बरसात से पहले
अंधड तूफ़ान में आंखे मलता
घनघोर वृष्टि
जेठ कि चुभती दोपहर में
भटकता
बरसात से पहले
अंधड तूफ़ान में आंखे मलता
घनघोर वृष्टि
घर लौटना
कोहरे और ओस से भरे दिनों को
याद करता हूँ
जैसे मैं फिर लौटता हूँ घर
अकेला और निरुपाय
पीछे छोड़ कर अपना असबाब
बन्द
याद करता हूँ
जैसे मैं फिर लौटता हूँ घर
अकेला और निरुपाय
पीछे छोड़ कर अपना असबाब
बन्द
प्रेम और मृत्यु में
एक पड़ाव ऐसा है हर कविता में
जहाँ प्रेम और मृत्यु-
दोनों का एक ही मर्म है
अनन्त नीली रोशनी में डूबे हुए फूल
वहाँ
जहाँ प्रेम और मृत्यु-
दोनों का एक ही मर्म है
अनन्त नीली रोशनी में डूबे हुए फूल
वहाँ
नदी-यात्रा
बन्द सन्दूकों से लदी नावें काली औरतों की भीड़ बहते हुए पानी की आवाजें
शोरगुल से भरी यात्राओं का कोई अन्त
शोरगुल से भरी यात्राओं का कोई अन्त
अतीन्द्रिय
रोज इसी वक्त गुज़रती है यह रेलगाड़ी
याद आते हैं मुझे सिर्फ़ स्वप्न
कभी जो मैने देखे
वे क्रूरताएँ वे मोह वे
याद आते हैं मुझे सिर्फ़ स्वप्न
कभी जो मैने देखे
वे क्रूरताएँ वे मोह वे
बहुत कुछ जैसा कुछ नहीं
तुम्हारी बेफिक्र आशंका की
चिलचिलाती हुई छाया से गुज़र कर ठहरा हुआ जाता हूँ
एक खेद भरी प्रसन्नता की तरफ़
हँसती
चिलचिलाती हुई छाया से गुज़र कर ठहरा हुआ जाता हूँ
एक खेद भरी प्रसन्नता की तरफ़
हँसती
एक सार्थक शुरूआत
लाखों प्रकाशवर्षों तक पैदल चल चुकने के बाद
जागता हूँ भाषा में अचानक
पहचान में आ जाते हैं ओस के बने बादल
बीजों को
जागता हूँ भाषा में अचानक
पहचान में आ जाते हैं ओस के बने बादल
बीजों को
‘कुछ नहीं’ के बारे में कविता
अब से पहले मेरा मानना था-
‘कुछ नहीं’ के बारे में कुछ भी कह सकना एक झूठ है।
उस पर कविता भी नहीं की जा सकती अगर,
‘कुछ नहीं’ के बारे में कुछ भी कह सकना एक झूठ है।
उस पर कविता भी नहीं की जा सकती अगर,
आत्मा की भूख है स्मृति
तुम्हें जीवित रखने के लिए भाषा एक लौ बन कर कौंधती है
लाखों साल से शिराओं में बहते हुए खून में
शब्द हिलता है पर, इसे
लाखों साल से शिराओं में बहते हुए खून में
शब्द हिलता है पर, इसे
कैसा होगा पत्थरों का वसन्त
प्रतिदिन छोड़ता हूँ पीछे अपने पाँव चिन्हों की शक्ल में
जो पत्थरों पर छपते अदृश्य
कुछ क्षण वहीं ठहर कर
सोचता
जो पत्थरों पर छपते अदृश्य
कुछ क्षण वहीं ठहर कर
सोचता
खिड़की में कबूतर
बैठा कबूतर एक खिड़की में मेरी
लगता जैसे चबा डालता
मेरे शब्द
जब-जब उगता दिन एक ध्वनिविहीन, रंगहीन, गन्धहीन
लगता जैसे चबा डालता
मेरे शब्द
जब-जब उगता दिन एक ध्वनिविहीन, रंगहीन, गन्धहीन
कविता और पहाड़
‘‘देखो
इस पहाड़ को
आदमी तो इसके सामने बिलकुल चिडि़या जैसा लगे’’
देख कर पहाड़ एक अनपढ़ विस्मित स्त्री बोली
अपने
इस पहाड़ को
आदमी तो इसके सामने बिलकुल चिडि़या जैसा लगे’’
देख कर पहाड़ एक अनपढ़ विस्मित स्त्री बोली
अपने
फूल, ख़ुशी, पैंसिलें
लोग घरों में उगाते हैं
फूल
सिर्फ़ अपनी खुशी के लिए
मैंने बहुधा
इस मनोविज्ञान को ले कर सोचा है
और हर बार चुप हो
फूल
सिर्फ़ अपनी खुशी के लिए
मैंने बहुधा
इस मनोविज्ञान को ले कर सोचा है
और हर बार चुप हो
नन्ही सी कली मेरा जीवन ..............बढ़कर नहीं कोई दूजा
नन्ही सी कली मेरा जीवन ................
१. सबसे पहले माँ ने अपनाया
नौ महीने कोख में सुलवाया |
२. नव जीवन का अंकुर फूटा
माँ
१. सबसे पहले माँ ने अपनाया
नौ महीने कोख में सुलवाया |
२. नव जीवन का अंकुर फूटा
माँ
तलाश ...................
१. दिल में इक आह सी है
कि यूँ ही भटकता रहता हूँ इसकी तपिश में |
जाने कब भुझेगी ये तपिश !
इक आशियाने कि तलाश है उस
कि यूँ ही भटकता रहता हूँ इसकी तपिश में |
जाने कब भुझेगी ये तपिश !
इक आशियाने कि तलाश है उस
नमन है वतन पे मिटने वालो
नमन है वतन पे मिटने वालो.......
१. समंदर कि लहरों पे चलने वालों
हिमालय पे बेठे देश के रखवालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
१. समंदर कि लहरों पे चलने वालों
हिमालय पे बेठे देश के रखवालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
न जाने किसे पुकारता हूँ !
न जाने किसे पुकारता हूँ.
“खुदा नहीं है ”
ये औरों से कहता हूँ.
‘ख़ुद’ न जाने किसे पुकारता हूँ .
मंदिर – मश्जिद,
“खुदा नहीं है ”
ये औरों से कहता हूँ.
‘ख़ुद’ न जाने किसे पुकारता हूँ .
मंदिर – मश्जिद,
न जाने किसे पुकारता हूँ !
न जाने किसे पुकारता हूँ.
“खुदा नहीं है ”
ये औरों से कहता हूँ.
‘ख़ुद’ न जाने किसे पुकारता हूँ .
मंदिर – मश्जिद,
“खुदा नहीं है ”
ये औरों से कहता हूँ.
‘ख़ुद’ न जाने किसे पुकारता हूँ .
मंदिर – मश्जिद,
गुरुवार, 21 जून 2012
पर तुम बिछडना न कभी
गुलाब मे ही कान्टे होते है,
पर छुना न उन कान्टो को कभी!
चाहे बिछडे गुलाब से कान्टे,
पर तुम बिछडना न कभी!!
सरगम
कोई जब हाथ ये देखे मैं तेरा हूँ निकल आये
कोई जब हाथ ये देखे मैं तेरा हूँ निकल आये
नमी भी हो चले रुखसत चश्म से खूँ निकल आये
तुम्हारी याद से निकलूँ किसी कागज
नमी भी हो चले रुखसत चश्म से खूँ निकल आये
तुम्हारी याद से निकलूँ किसी कागज
नन्ही सी कली मेरा जीवन ..............बढ़कर नहीं कोई दूजा
नन्ही सी कली मेरा जीवन ................
१. सबसे पहले माँ ने अपनाया
नौ महीने कोख में सुलवाया |
२. नव जीवन का अंकुर फूटा
माँ
१. सबसे पहले माँ ने अपनाया
नौ महीने कोख में सुलवाया |
२. नव जीवन का अंकुर फूटा
माँ
तलाश ...................
१. दिल में इक आह सी है
कि यूँ ही भटकता रहता हूँ इसकी तपिश में |
जाने कब भुझेगी ये तपिश !
इक आशियाने कि तलाश है उस
कि यूँ ही भटकता रहता हूँ इसकी तपिश में |
जाने कब भुझेगी ये तपिश !
इक आशियाने कि तलाश है उस
नमन है वतन पे मिटने वालो
नमन है वतन पे मिटने वालो.......
१. समंदर कि लहरों पे चलने वालों
हिमालय पे बेठे देश के रखवालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
१. समंदर कि लहरों पे चलने वालों
हिमालय पे बेठे देश के रखवालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
नमन है वतन पे मिटने वालो.......
१. समंदर कि लहरों पे चलने वालों
हिमालय पे बेठे देश के रखवालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
१. समंदर कि लहरों पे चलने वालों
हिमालय पे बेठे देश के रखवालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
नमन है वतन पे मिटने वालो.......
१. समंदर कि लहरों पे चलने वालों
हिमालय पे बेठे देश के रखवालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
१. समंदर कि लहरों पे चलने वालों
हिमालय पे बेठे देश के रखवालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
नमन है वतन पे मिटने वालो.......
१. समंदर कि लहरों पे चलने वालों
हिमालय पे बेठे देश के रखवालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
१. समंदर कि लहरों पे चलने वालों
हिमालय पे बेठे देश के रखवालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
नमन है वतन पे मिटने वालो.......
१. समंदर कि लहरों पे चलने वालों
हिमालय पे बेठे देश के रखवालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
१. समंदर कि लहरों पे चलने वालों
हिमालय पे बेठे देश के रखवालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
नमन है वतन पे मिटने वालो.......
१. समंदर कि लहरों पे चलने वालों
हिमालय पे बेठे देश के रखवालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
१. समंदर कि लहरों पे चलने वालों
हिमालय पे बेठे देश के रखवालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
नमन है वतन पे मिटने वालो.......
१. समंदर कि लहरों पे चलने वालों
हिमालय पे बेठे देश के रखवालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
१. समंदर कि लहरों पे चलने वालों
हिमालय पे बेठे देश के रखवालो
नमन है वतन पे मिटने वालो
बुधवार, 20 जून 2012
लंगोटी लगाने से जटा के बढ़ाने से / शिवदीन राम जोशी
लंगोटी लगाने से, जटा के बढ़ाने से,
स्थान बड़ा पाने से बन बैठे भूप है |
विद्वान् बनने से,
स्थान बड़ा पाने से बन बैठे भूप है |
विद्वान् बनने से,
केते बदमाश गुंडे / शिवदीन राम जोशी
केते बदमाश गुंडे लंगोटी लगाय घूमे,
मदवा ज्यूँ झूमे कूर पेट भरे आपका |
स्वांग बना साधू का
मदवा ज्यूँ झूमे कूर पेट भरे आपका |
स्वांग बना साधू का
मान-मान मान सजन / शिवदीन राम जोशी
मान-मान मान सजन,बात मेरी मान रे !
शिवदीन शरण संत की, करो ना गुमान रे ||
वक्त आगया कुराज, राखि रहे संत लाज |
शिवदीन शरण संत की, करो ना गुमान रे ||
वक्त आगया कुराज, राखि रहे संत लाज |
मान-मान मान सजन / शिवदीन राम जोशी
मान-मान मान सजन,बात मेरी मान रे !
शिवदीन शरण संत की, करो ना गुमान रे ||
वक्त आगया कुराज, राखि रहे संत लाज |
शिवदीन शरण संत की, करो ना गुमान रे ||
वक्त आगया कुराज, राखि रहे संत लाज |
मंगलवार, 19 जून 2012
उतर आया जो आँखों में तुम्हारा ही तो किस्सा हूँ
उतर आया जो आँखों में तुम्हारा ही तो किस्सा हूँ
दबा कर होठ ही कह दो तुम्हारा ही तो हिस्सा हूँ
मुझे अपने तसव्वुर में
दबा कर होठ ही कह दो तुम्हारा ही तो हिस्सा हूँ
मुझे अपने तसव्वुर में
दिल तेरा मुझको लगा दर्पण कोई
दिल तेरा मुझको लगा दर्पण कोई,
मैं यूँ ही करता रहा दर्षन कोई।
दोस्ती मुझको तेरी खलने लगी,
बीच में जो आ गया चिलमन
मैं यूँ ही करता रहा दर्षन कोई।
दोस्ती मुझको तेरी खलने लगी,
बीच में जो आ गया चिलमन
xty
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दिल तेरा मुझको लगा दर्पण कोई
दिल तेरा मुझको लगा दर्पण कोई,
मैं यूँ ही करता रहा दर्षन कोई।
दोस्ती मुझको तेरी खलने लगी,
बीच में जो आ गया चिलमन
मैं यूँ ही करता रहा दर्षन कोई।
दोस्ती मुझको तेरी खलने लगी,
बीच में जो आ गया चिलमन
सोमवार, 18 जून 2012
गजल
गजल
दिल तेरा मुझको लगा दर्पण कोई, मैं यूँ ही करता रहा दर्षन कोई।
दोस्ती मुझको तेरी खलने लगी, बीच में जो आ गया चिलमन
दिल तेरा मुझको लगा दर्पण कोई, मैं यूँ ही करता रहा दर्षन कोई।
दोस्ती मुझको तेरी खलने लगी, बीच में जो आ गया चिलमन
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अभी सदाएं उसे न देना, अभी वो राह से गुजर रहा है
अभी सदाएं उसे न देना ,अभी वो राह से गुज़र रहा है
कदम हसीं वो जहाँ भी रखे , वहीँ ज़माना ठहर रहा है
अगर जान लेले तो गम
कदम हसीं वो जहाँ भी रखे , वहीँ ज़माना ठहर रहा है
अगर जान लेले तो गम
सच है, संदेह का काम नहीं है / शिवदीन राम जोशी
सच है, संदेह का काम नहीं है |
ये असंतजन, संत रूप में, क्या ये शठ बदनाम नहीं है ||
ठगते रहते नदी ज्यो बहते, ये क्यों
ये असंतजन, संत रूप में, क्या ये शठ बदनाम नहीं है ||
ठगते रहते नदी ज्यो बहते, ये क्यों
ऊब में दाम्पत्य
एक डरे हुए संकोच के साथ शुरू होता हूँ
हाशिये पर चले जाते हैं दुःख
अक्सर रास्ते में मिला कोई परिचित चेहरा ठिठका
हाशिये पर चले जाते हैं दुःख
अक्सर रास्ते में मिला कोई परिचित चेहरा ठिठका
दाम्पत्य-चार कविताएं
दाम्पत्य-चार कविताएं
1
अगर तुम चाहो बह सकती हो पानी में
तरलता की तरह
रह सकती हो हवा में आक्सीजन
जैसे रहती है नमक
1
अगर तुम चाहो बह सकती हो पानी में
तरलता की तरह
रह सकती हो हवा में आक्सीजन
जैसे रहती है नमक
कुर्सी
हममें से शायद हर एक कुर्सी जैसी साधारण
किन्तु अत्यधिक उपयोगी चीज़ की बनावट से परिचित है
अधिकतर यह लकड़ी की बनायी
किन्तु अत्यधिक उपयोगी चीज़ की बनावट से परिचित है
अधिकतर यह लकड़ी की बनायी
अगली सुबह
देख सका वहीं तक अपने सपनों की पीठ
वहीं तक पहुँची पक कर गिरने को उद्यत फलों की चीख़
भाषा में व्यथा एक बहुअर्थी शब्द
वहीं तक पहुँची पक कर गिरने को उद्यत फलों की चीख़
भाषा में व्यथा एक बहुअर्थी शब्द
हँसती हुई इक्यासी हजार लड़कियाँ
थोड़ा अटपटा है इस कविता का शीर्षक
आपको यह लग़भग अविश्वसनीय लग सकता है
और अतिरंजित भी
हो सकता है, सही हो आपका
आपको यह लग़भग अविश्वसनीय लग सकता है
और अतिरंजित भी
हो सकता है, सही हो आपका
आँधी
किसी अनदेखी खोह से निकला आर्तनाद है वह
आसमान फोड़ कर पृथ्वी की तरफ़ बढ़ती एक किरकरी चीख़
सुनते हैं हम उस के आगमन
आसमान फोड़ कर पृथ्वी की तरफ़ बढ़ती एक किरकरी चीख़
सुनते हैं हम उस के आगमन
पृथ्वी को सम्बोधित
किसी अथाह के भीतर गिरती इच्छाओं के लिए
यहाँ तुम कुछ देर ठहरो प्यारी पृथ्वी
रुको कि तुम्हें दिखलायी दे हमारी
यहाँ तुम कुछ देर ठहरो प्यारी पृथ्वी
रुको कि तुम्हें दिखलायी दे हमारी
गौरैया
ईश्वर के सम्बन्ध में तो नहीं कह सकता,
पर सहज ही होने लगता है कई बार ऐसा विश्वास
कि सर्वशक्तिमान् है प्रकृति एक
पर सहज ही होने लगता है कई बार ऐसा विश्वास
कि सर्वशक्तिमान् है प्रकृति एक
कायाकल्प
जूतों में भरे अंधकार के लिए चुप रहती हैं जीवन भर सड़कें
लेटते हुए बिस्तर पर कौन याद रखता है उसका माप
किताब में
लेटते हुए बिस्तर पर कौन याद रखता है उसका माप
किताब में
मेरी मेज
पिछले बहुत बरसों के मेरे जीवन का है हिस्सा
और उसका बेहतरीन दुःख
जैसे मेरी अकेली शरणगाह मेरी मेज
आयताकार छाती पर
और उसका बेहतरीन दुःख
जैसे मेरी अकेली शरणगाह मेरी मेज
आयताकार छाती पर
बनास पर सूर्यास्त
बरसों से
जो सारे अव्यक्त अफ़सोसों और कृतज्ञताओं को लिए बह रही है
थोड़ा-बहुत उस नदी को जानता हूँ
किनारे पर यथावत्
जो सारे अव्यक्त अफ़सोसों और कृतज्ञताओं को लिए बह रही है
थोड़ा-बहुत उस नदी को जानता हूँ
किनारे पर यथावत्
जन्मदिवस
यहाँ तक आ रही है जिस रोशनी की मन्दी-सी ऊष्मा
उसमें मैं अवश्य खड़ा मिलूँगा
अपने-आपको बहुत से जन्मदिवसों के
उसमें मैं अवश्य खड़ा मिलूँगा
अपने-आपको बहुत से जन्मदिवसों के
ताँगे
शहरों में
अब
बहुत कम
दीखते हैं
ताँगे
एक युग था जो बीत गया
चाबुक,
तेरे लिए जिसे करूणा है आज भी
वह घोड़े की पीठ
अब
बहुत कम
दीखते हैं
ताँगे
एक युग था जो बीत गया
चाबुक,
तेरे लिए जिसे करूणा है आज भी
वह घोड़े की पीठ
दूसरा दर्जा
दोपहर का वक्त था वह
पर ठीक दोपहर जैसा नहीं,
नदी जैसी कोई चीज़ भागती हुई खिड़की से बाहर
सूख रही थी
पुलों और पटरियों
पर ठीक दोपहर जैसा नहीं,
नदी जैसी कोई चीज़ भागती हुई खिड़की से बाहर
सूख रही थी
पुलों और पटरियों
दरवाज़े
दरवाज़ों को ले कर नींद में भी चैंक कर उठ सकती हैं गृहणियाँ
कि वे ठीक से बन्द हैं भी या नहीं
अगर वे रात खुले रह जायें
कि वे ठीक से बन्द हैं भी या नहीं
अगर वे रात खुले रह जायें
यमुना में ख़ाली नावें देख कर
कितनी नावें थी वहाँ
अकेली उचाट प्रतीक्षारत
लौट कर जिन्हें उनमें चढ़ना था
वे यात्री कहाँ गये
दोपहर थी हमारे
अकेली उचाट प्रतीक्षारत
लौट कर जिन्हें उनमें चढ़ना था
वे यात्री कहाँ गये
दोपहर थी हमारे
रहूँगा
रहूँगा ही मैं
रहूँगा
व्यस्त पृथ्वी के धीरज और
आकाश की भारहीनता में
खनिज की विलक्षणता
पानी की तरलता
आग की गर्मी
रहूँगा
व्यस्त पृथ्वी के धीरज और
आकाश की भारहीनता में
खनिज की विलक्षणता
पानी की तरलता
आग की गर्मी
अनन्त उपक्रम
किनारे बैठ कर
मेरे लिए चिंता है
वही एक मछली
अपूर्व अद्वितीय सुनहली
जाल भी नया
खूब मजबूत है
इरादा पक्का
अलौकिक
मेरे लिए चिंता है
वही एक मछली
अपूर्व अद्वितीय सुनहली
जाल भी नया
खूब मजबूत है
इरादा पक्का
अलौकिक
रविवार, 17 जून 2012
शनिवार, 16 जून 2012
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