गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

बंजर सी शाम

एक-एक कर दिन कितने,
ना जाने कैसे बीते, सुबह हुई तो शाम छिपी,
और दुपहरी कैसे बीती।
ना याद रहा अब तो वह पल,
आखिरी बार

बंजर सी शाम

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