सोमवार, 23 जुलाई 2012

गज़ले

(1)


ये कैसा शमाँ है ये कैसा मंजर है।

इंसानियत की पीठ में धंसा खंजर है।



हैवानियत की फसल कटी तब-तब,

सोच इंसान की

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