बुधवार, 4 नवंबर 2015

गरीब बेरोजगार

गरीब बेरोजगार

मेरे घर में तीन आंखें संचित पूंजी
तीनों निस्तेज, भावना रहित लुटा देता है
आषा बदली निराषा में फिर बेरोजगारी ओर रिष्वत
तीनों चुपचाप तोड़ देती है कमर उसकी
टकटकी लगाए इंतजार में हैं
शायद किसी के
मां की आंखें
छितरी, मिट्टी की भांति
छितर-छितर रह जाती हैं -ः0ः-
हल्की-सी हवा भी
आंधी-सी नजर आती है
शैलाब फुट पड़ता है
बहने लगती है
अरमानों की नदी
रोक कर भी
नही रोक पाती
इनमें ऐसी बाढ़ है आती
यह देख फिर
पिता की आंखें
बालू के अरबों कण बन
लगते हैं इधर-उधर भटकने
ऐसे में रास्ता भूल
होने लगती है वर्षा
हृदय भी जाता है भर
कुंभला जाता है कंठ
बोले ! तो बोला नही जाता
आंखों से बहने वाली नदी
आती है तीसरी आंख में
ये सभी तो हो रहा है
उस गरीब की आंखों में
जो अनेक अरमान संजोकर
बढ़ता है, पढ़ाता है।
गरीब ! अपनी संतान पर
फिर जीवन भर की

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