बुधवार, 4 नवंबर 2015

साहित्य का प्रायश्चित

कुहासा घना छा रहा
सूर्य भी मुस्कुरा रहा
कैसी विडम्बना जानिये
एक दूसरे के विरोधी
साथ-साथ आसमान बांट रहे।
साहित्य की दुनिया देखी
व्याख्या का भी शोध किया
एक साथ संजोया सभी ने
आलोचनाओं के शिखर को
आज क्यों अलग राह हो गई।
देख तर्क वितर्कों को
सम्मान को अपमान में बदलते
अपनी कहानियां भी हंसती है
अधिकारों का नेतृत्व है यह
या छीछालेदर करती कोई मस्ती है।
वह पुरस्कार अलंकरण भी
ढूंढ रहे होंगे अपना वारिस
अपनों का साया खोजता अनाथ जैसे
दुनियादारी को समझ गया शायद
अबोघ तो वह नहीं था मगर कैसे?
कलम की स्याही सूख गई
प्रकृति की अंगड़ाई रूठ गई
कविताऐं भी अपमानित हो गई
तभी समय ने गर्व को दिखा आईना
करवटों में भूकम्प रचा
लिख दिया एक नया अध्याय
साहित्य का प्रायश्चित।

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