रविवार, 1 नवंबर 2015

तेज़ाब उभर आता है । ग़ज़ल।।

तेजाब उभर आता है ।ग़ज़ल

मैं तो खामोश हूँ पर जबाब उभर आता है ।।
बीते लम्हों का इक ख्वाब उभर आता है ।।

अब जा, चली जा तू मेरी नजर से दूर कही ।।
तुझे देखूं तो दर्द का शैलाब उभर आता है ।।

बात तो बिल्कुल मत कर तू अपनी बेगुनाही की ।।
गुनेहगार मैं भी नही बेताब उभर आता है ।।

अब दहकते है शोले खुद व् खुद तन्हाइयो में ।
तू मिले तो आँखों में आफ़ताब उभर आता है ।।

माना कि तेरी यादो में जन्नत की झलक मिलती है ।
ख़ुशनुमा चेहरा वो गुलाब उभर आता है ।।

जो भी मिला सुकून बनकर तोड़ ही गया दिल ।
अब हर कोई बेवफा ज़नाब उभत आता है ।।

जा चली जा रकमिश” हर हाल भुला देगा तुझे ।।
पर भूलने की चाह से तेज़ाब उभर आता है ।

—R.K.MISHRA

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