मन हुआ पुलकित
मुस्काये सुमन
आशा की धरा में सार जागा
रवि का तेज देख
तिमिर भी उस पार भागा।
ओंस की आस अस गई
सुमन ने खोले अंग
धरा रूप देख दंग
पवन सुकुमार भी बह निकली
निशा सुन्दरी रह गयी अकेली।
अम्बर ने खोले द्वार
अधीर अधरों ने
पाया मुस्कानों का आधार
फूलों की महक
बन पड़ी हवा की चाह
पथिक थका सा
खोज रहा अपनी राह।
भोर सुनहली बह निकली
सूर्य बना अनल आगार
हिमकण पिधल उठे
वन उपवन सोख रहे
वायु से प्रेरित शीत सुख बयार।
धरा उपजाऊ
हरियाला आंचल फैलाये
वृषभ नाचे हल
संग कृषकों का कोलाहल
इन्द्र मेध बरसाये
संग मिट्टी की महक
नयनों में आभा जगाये
तृप्ति देख हर अंग
होंठ भी अविराम लगाये।
संध्या करे अभिनन्दन
मेध रंगे कुन्दन
धरा प्रजा सब घर आई
दिवा तेज चूर
फूल पत्तियां की अलसाई
सांझ शीत वायु वेग संग
जल बूंद चूमे अंग
प्रेम सुधा की यह अधिकाई
रूप दम्भ भूल नयना
प्रेम ज्ञान सार रच आई।
अवसान का फैला आसन
काल रंगा हर आंगन
अनन्त तक शून्य
चीर हर रहा पांचाली का
निर्लज्ज दुशासन
होंठ सभी अधखुले थे
शशि ने नयन तब खोले थे
श्याम सलोने ने जब
आकाश के बादल जोड़े थे।
निकल चला अंधकार
प्रकाश का पथ आंकने
खोल नयन के द्वारा लगी
सुन्दरा गगन तांकने
पूर्व दिशा लगी दमकने
पक्षी समूह लगा चहकने
निशा घमण्ड पुनः चूर हुआ
भोर का किन्तु जागा
फैला था आंचल उषा का
सुबह आ लगा वह भी सिमटने।
प्रकृति कि चिन्तन को
रश्मिकणों का दे स्पर्श
निशा को कर विदा
प्रभा किरण पुनः बहक चली
कोंपलें फूंटी शाखों में
सुख की महक महक पड़ी
दिशाऐं सभी ओजवान हुई
पथ-पथ की यहां पहचान हुई।
………………… कमल जोशी
Read Complete Poem/Kavya Here प्रभा किरण
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें