गुरुवार, 5 नवंबर 2015

अंतहीन तलाश

मैंने अपने हृदय में
तिनके का एक घर बनाया
जिसके हर कोने में
मैंने सिर्फ तुम्ही को पाया
कभी सुमन की तरह तुम मुस्कुरायी
कभी खूशबू की तरह
तुम चारों ओर महकी
कभी चमकी
ओंस की बूंद की तरह
तो कभी रंग की तरह
तुम निखरी
मैंने कई बार अपने होठों से
तुम्हें स्पर्श करना चाहा
बादलों के उस पार तक
तुम्हें तलाशना चाहा
तुम्हें अपने हृदय में सजाया
जीवन के हर कोने में बसाया
सोचा तुम्हें मैंने करीब से
राह से भटके राही की तरह
तुममे मैंने अपना रास्ता खोजा
तुम्हारे हाथों की लकीरों में
तुम्हारे माथे की रेखाओं में
आंखों की गहराईयों में
खोकर अपने सभी सवालों का
मैंने जवाब जानना चाहा
जिनकी तलाश में
मैं चलते-चलते
नदी के उस पार से
न जाने कहां आ पंहुचा हूं
जहां न तो रात का सन्नाटा है
और न ही दिन का उजाला है
न यह नदी है न सागर है
न पहाड़ है न मरूस्थल
जिसका कोई अन्त नहीं है
कहीं अन्त नहीं है।

………………… कमल जोशी

Share Button
Read Complete Poem/Kavya Here अंतहीन तलाश

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें