अच्छा नहीं लगता मुझको
बारिश में यूं तन्हा घर लौटना
तुम छत्री लेकर मेरा इंतज़ार क्यूँ नहीं करते
बातों की कतार बुनेंगे
दादुर की पुकार सुनेंगे
फिर बिजली के कड़कड़ाहट का भय न होगा
काले घटाटोप के गड़गड़ाहट का भय न होगा
छोटे छोटे गड्डों में चुलबुले बुलबुलों को बनते, फूटते देखेंगे
मकानो के छत से टपकते बूंदों को ज़मीन की और लपकते देखेंगे
ऐसा भी कुछ वक़्त बिताया जाए
इस पर कभी विचार क्यूँ नहीं करते
बरसात के वक़्त तुम छतरी लेकर मेरा इंतज़ार क्यूँ नहीं करते
– सबीता लंगकम
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