क्यों रे मन तू हार रहा है।
जीवन अभी पुकार रहा है।
कितने व्यथित हुए हो खुद से।
खुद ने खुद को भार कहा है।
नरक नहीं मिल सकता तुझको।
स्वर्ग कहा से पाओगे।
ऐसी चाल रही गर खुद की।
खुद ही तुम मिट जाओगे।
देखो जग में दौड़ रहे सब।
पाने को कुछ छोड़ रहे सब।
क्यों तू ऐसे पड़ा हुआ है।
बिन भावों के भरा हुआ है।
उठा जरा इन पलकों को।
देख जरा इन हलको को।
रुके नहीं है कदम जरा भी।
चलते जाये सदा सदा ही।
मन में एक विश्वास जगओ।
पाने की कुछ प्यास बढ़ाओ।
समझो जीवन पुण्य पिटारा।
कभी ना मानो खुद को हरा।
बन अर्जुन तुम वाण चढ़ाओ।
आँख दिखेगी ध्यान लगाओ।
विश्व विजेता बन जाओगे।
गर खुद में खुद को पा पाओगे।
सुनील कुमार
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