शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

एक दबी आग

बुझती नहीं ताउम्र एक बार जो जल जाती है,
वक़्त के कदमों तले वो राख़ में छिप जाती है ।
बेचैन रहती थी जो एक झलक पाने को ,
सामना होते ही वो अंजान नज़र आती है,
पास आते ही जो गले लग के लिपट जाते थे ,
देख कर दूर से अब राह ही मुड़ जाती है,
पतंग की डोर से पहुंचाते थे जो खत मुझको,
हाल उनका ये हवाएँ भी नहीं बताती हैं,
याद आ जाऊँ मैं शायद उन्हें फुर्सत में,
सुना है उनको अब फुर्सत नहीं मिल पाती है,
बेसब्र हवाओं से कभी राख़ जो उड़ जाती है,
एक दबी आग फिर से उभर जाती है।

Share Button
Read Complete Poem/Kavya Here एक दबी आग

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें