नज्म
समझते रहे जिनको हम अपना खानसामा !
सदा उनके हाथो अपनी अस्मित लुटती रही !!
जो बनकर बैठे है रहनुमा परदे के पीछे खंजर लिए !
इस दिल से उनके लिए फिर भी दुआ निकलती रही !!
बहता रहा लहू अपना पसीने की धार बनकर !
पीकर जाम की तरह उनकी प्यास बुझती रही !!
हम बिछते रहे सरेराह उनके स्वागत पुष्प बन !
वो कुचलते गए और हस्ती अपनी मिटती रही !!
बिकते रहे कोड़ियो के दाम, लगी कीमत जान की !
किया सरेबाज़ार नीलाम, बोली अपनी लगती रही !!
कुछ इस तरह से हुआ काम तमाम अपना इधर !
चलाये जिन्होंने खंजर उनको शाबाशी मिलती रही !!
हम मरते गए,बिखरते गए,जिंदगी यू गुजरती गयी !
अपनी कब्रगाह पर लोगो की महफ़िल सजती रही !!
आह तक न निकली जुबान से अपनी दम घुटती रही !
मैंने किया मजाक था, ये कह हँसी उनकी छुटती रही !!
डी. के. निवातियाँ_____________!!!
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