रेलगाड़ी की तरह जिंदगी
जन-जन की बोगी से जुड़ हुए…!
तमाम उम्र गुजर जाती है
एक दूसरे से जुड़ते -टूटते हुए…!!
चलती रेलगाड़ी की तरह
सरपट दौड़ती, धीमी कभी तेज !
गंतव्य पाने की अभिलाषा
दहकती कर्म की अग्नि में तेज़ !!
प्राणो को ढोती हुई
जीवन में बोगी रूपी तन !
किसी का समीप
किसी का सुदूर लक्ष्य बन !!
आते अडचने के प्लेटफार्म
जहाँ पल दो पल रूकती है जिंदगी !
छोड़कर यादो के मुसाफिर
फिर रफ़्तार पकड़ चलती है जिंदगी !!
रिश्तो नाते जिसकी राहे
किसी से बिछुड़ना किसी की अपनाती !
रेलगाड़ी की बोगी की तरह
सफर में कभी जोड़ती कभी हटाती जाती !!
कितनी समानता लिए
रेलगाड़ी की तरह जिंदगी चले जिंदगानी !
अपने गंतव्य को पाते ही
स्वंय से अपरिचित रहती जिसकी कहानी !!
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( डी. के. निवातियाँ )
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