जलती धरती, धुप कड़क सी
बहती गर्म हवाएँ सन सन सी,
भय फैलाती हु जन जन में
यु न फिरते लोग है दिन में,
तपती नदियाँ, तपते सागर,
तपते है, भरे हुए वह गागर,
तपती ज्वाला में सभी दिशाएं
तपते बगीचे, फूल मालाएं,
तपती रंग बिरंगी कलियाँ,
तपती है गाओं की गालियाँ
तपते सारे शहर और मेले,
तपते बाकी सारे झमेले
है झुलसते पैर तपन से,
जैसे बरसी आग गगन से
जलती हर इंसानो की छाती
जैसे उबलते पानी की भाति,
मैं हु जलाती, मैं झुलसाती,
जेठ की गर्मी मैं बरसाती,
फिरती हु मैं लुक बन बन सी,
हु आई मैं बन दुपहरी सी,
अमोद ओझा (रागी)
Read Complete Poem/Kavya Here !! दुपहरी !!
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