मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

बेरुख़ी

ग़ज़ल

कुछ और बात कह रही है तेरी बेरुख़ी,
क्या ज़िंदगी में आ गया है दूसरा कोई !

जिनके बग़ैर ज़िंदगी ये ज़िंदगी ना थी,
मेरे ख़ुदा !वो बन गये हैं कैसे अजनबी !

ना मैं ही माहताब हूँ ,ना तू है महजबीं,
कोई शक्ल-ओ-ज़बान ना होती है इश्क़ की |

बेचारगी जिगर की ये किसको कहे ‘सहर’,
शायद !मुझ ही में रह गयी थी कुछ ना कुछ कमी !

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