सोमवार, 13 अप्रैल 2015

बुझ न जाये आस कहीं।

मौसम की करवट के नीचे
विवश हुई है सूर्य किरण।
मानो जनक करें स्वयम्बर
राम आएंगे सिया वरण।

वृक्ष की ओट में हृदय छिप गए
मिलन हो रहा आँखे मूँद।
गीली धरती गीत गा रही
प्रीत में नाच रही हर बूँद।

मध्यम-मध्यम सी पवन बहे
गुलशन से करती मनमानी।
प्रश्न गगन से करती लहरें
बोलो तुमने है क्या ठानी?

विरह अग्नि में जले वेदना
प्रियतम तुम क्यों पास नहीं?
एक दीप जलाकर रखा है
बुझ न जाये ये आस कहीं।

वैभव”विशेष”

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