ग़ज़ल
क्या कहूँ पहलू में उनके क्या किया मैं रात भर,
ज़ुल्फ़ की इक लट में ही उलझा रहा मैं रात भर |
जिसके हर इक अंग पर कुछ ख़ास है कारीगरी,
उस तराशे हुस्न को समझा किया मैं रात भर |
नैनों में उस नाज़नीं के बसता है आब-ए-हयात,
रफ़्ता–रफ़्ता ज़िंदगी पीता रहा मैं रात भर |
चाँद भी जिस आब को छूने को है बेताब सा,
दूधिया उस ताल में डूबा रहा मैं रात भर |
क्या पता किसने सुनी,तौबा किया किसने ‘सहर’
ये कहानी वस्ल की कहता रहा मैं रात भर |
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