शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2015

।।कविता।।मैं भी कवितायेँ लिखता हूँ।।

।।कविता।।मैं भी कवितायेँ लिखता हूँ।।

भावों की बिख़री छाया से
इस हृदय को सींचे ।
स्थिर होकर बैठ गया मैं
कल्पवृक्ष के नीचे ।।
बहते झरने
सूखी नदिया
दुःख में दुविधाये लिखता हूँ
मैं भी कविताएँ लिखता हूँ ।।

तपते उन मिटटी के ढेलों
में किसान जलते है ।
जिनके बच्चे घास उठाते
नर्म आह भरते है ।।
बासी रोटी
लाल मिर्च की
खलती सुविधाएँ लिखता हूँ ।।
मैं भी कवितायेँ लिखता हूँ ।।

अर्धनग्न खपटैले चप्पल
मटमैली वो छाया
निर्धनता की सिर्फ लकीरे
पता नही क्या खाया
भूखे बच्चे
क्या सोचेगे
उनकी विपदायें लिखता हूँ ।।
मैं भी कवितायेँ लिखता हूँ ।।

बचपन की वे किल्लोले
जो गूँज रही है आती
माँ की ममता की परछायी
कितना सुख दे जाती
उन स्मृतियों
के आहट की
सारी विविधाये लिखता हूँ ।।
मैं भी कवितायेँ लिखता हूँ ।।

अफ़सर बाबू सेठ महाजन
दफ़्तर के चपरासी ।।
न जाने क्यों बने हुये है
घूंसों के अभिलाषी
दबे पाँव वे
जो भी करते
उनकी छमताये लिखता हूँ ।।
मैं भी कवितायेँ लिखता हूँ ।।

स्नेहो में आत्मसमर्पण
जाति पाति के आगे
सिखलाते सब निजवाचक हो
तो समाज क्यों त्यागे
प्रेम अनूठा
करना झूठा
लटकी प्रतिमाये लिखता हूँ ।।
मैं भी कवितायेँ लिखता हूँ ।।

धरना देते वही लोग जो
नौकरियां है पाये
फिर भी करते हाय हाय
बैठे है मुह बाये
सोच रहा हूँ
देख देखकर
घटती समताये लिखता हूँ ।।
मैं भी कवितायेँ लिखता हूँ ।।

और योजनाये सारी जो
चला रही सरकार
रुकी ही रहती जब चलती है
मचता हाहाकार
आक्रोषित जनता
के मन में
उपजी शंकाये लिखता हूँ ।।
मैं भी कवितायेँ लिखता हूँ ।।

मैंने देखे दर्द भरे कुछ
चेहरे बहुत रुआंसे
जिनमे नही शेष इच्छाये
बस चलती है साँसे
सूखे मुँह पर
आश्वासन की
झूठी ममताये लिखता हूँ ।।
मैं भी कवितायेँ लिखता हूँ ।।

आम और महुए में देखा
फलने लगे टमाटर
और लताएँ सूख रही सब
बेल रही है पापड़
रंग बदलने
की तरकीबे
ढोंगी रचनाएँ लिखता हूँ ।।
मैं भी कवितायेँ लिखता हूँ ।।

R.K.M

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