कुछ बुद्धिजीवियों को बढ़ती असहिंष्णुता के सपने आ रहे हैं
जिससे हुए व्यथित वो सरकारी सम्मान लौटा रहे हैं
एक दादरी हिंसा पे इनकी आत्मा रोती है
कश्मीरी हिन्दुओं की इन्हे चिंता ना होती है
जब पाक, बांग्लादेश में हिन्दू गए थे मारे
कोई इनसे पूछे कहाँ छुप गए थे ये सारे
आतंक के साए में जब पंजाबी मर रहे थे
ये सारे बुद्धिजीवी तब यहाँ क्या कर रहे थे
असम की जातीय हिंसा पे इनकी आत्मा ना रोइ
कहाँ तब सो गए थे सारे जरा पूछे तो इनसे कोई
नक्सली जब देश को नुकसान पहुँचा रहे थे
यही बुद्धिजीवी तब उन्ही के गीत गा रहे थे
तस्लीमा नसरीन पर जब हमला हो रहा था
इन सबका स्वाभिमान तब कहाँ सो रहा था
सलमान रुश्दी की किताब पर जब देश में रोक लगाई थी
अभिव्यक्ति की आज़ादी की तब याद किसी को ना आई थी
सिखों के कत्ले आम पर कहाँ थे ये सिपाही कलम के
तब क्यों ना झनझनाए तार संवेदना के मन के
हिन्दू जो पशुबलि दें तो बदनाम ये करते हैं
इनके दिल कभी ना पसीजे जब लाखों बकरे मरते हैं
मी नाथूराम गोडसे बोलतोय नाटक पर जब बैन था लगवाया
कला की आज़ादी का तब इन्हे ख़याल भी ना आया
अपना असल चेहरा ये खुद ही दिखाते हैं
करते हैं वही छेद जिस थाली में ये खाते हैं
इनकी इन हरकतों पे अतः ताव तुम ना खाओ
इनके दो तरह के दाँतों को जनता को बस दिखाओ
कुछ स्वार्थी सदा अज्ञानता का लाभ उठाते हैं
वो तब ही नग्न होंगे जब सच सामने आते हैं
शनिवार, 31 अक्टूबर 2015
असहिष्णुता के सपने
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