कल की शूली पर खुशी है आज की
अब कहां गुंजाईश भला फरियाद की.
खामोशियों का दर्द पहचानता है कौन
आजकल खातिर है बस आवाज की.
चांदनी भी छानकर पीते हैं आप
वाह बलिहारी नाजो अन्दाज की.
बेबसी के आंसुओं में धुल रही
दूध सी कोठी किसी सरताज की.
दर्द का लावा उफनता है मगर
दे रहीं पहरा निगाहें बाज की.
कौन सी बस्ती में टूटेगा कहर
राजधानी है यह यमराज की.
कुछ दिनो मुश्किल होगी मगर
कीजीये कोशिश खरे अनुवाद की.
इमान के परखचे उड जायेगें
याद आयेगी तभी रहमान की.
दास तिनका दांत मे है वक्त के
हाथ में खन्जर शक्ल है साज की.
शिवचरण दास
Read Complete Poem/Kavya Here कल की सूली पर-गजल-शिवचरण दास
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