गर्भ के अन्धकार में
पनपता एक नव जीवन
बुनता हर पल नए सपने
जीवन की आशा करता
पलता नित नव आलोक में !!
अंतर्मन में शंशय फैला
जागता सा सोता कोख में
चिंतित होता, भ्रमित होता
होगा क्या जब निकलूंगा
इस नरक के मलिन शोक से !!
कैसा होगा मेरा आशियाना
महल मिलेगा या टूटी झोपड़
कही खिलता बचपन होगा
या मिले अन्धकार का साया
बस डूबा रहता इसी सोच में !!
चखूंगा पहली बूँद पंचामृत की
या कड़वे पानी की बून्द मिलेगी
बजेंगे घर में तवा थाल ख़ुशी से
या होगा चंहु और सन्नाटा छाया
डर-डर के जी रहा हू इस खौफ में !!
झूलूंगा में किसी स्वर्ण पालने
या बिछा घास का आसन होगा
फेंका जाऊं किसी कूड़ेदान में
या आँचल से माँ के लिपटा होगा
जब आऊंगा जनमानस लोक में !!
होता है आभास नित्य नवीन
करता कोई इन्तजार आगमन का
सुगबुगाहट से होता भान जैसे
मेरे जनक करते कुछ मीठी सी बाते
लगे की होगा स्वागत बड़े जोश में !!
क्या हूँ मै खुद से अन्जान हूँ
बेखबर कुदरत के अभिनय से
नर – नारी का भेद न जाना
अज्ञानी था जीव जगत रीत से
नित बुनता सपने जीव लोभ में !!
उम्मीदों के पर बढ़ते जाते
घडी-घडी, अवधि बीत रही
समय दिन पक्ष, मास गुजरते
मुक्ति की लग अब आस रही
ये सोच सम्भालूंगा खुद होश में !!
अंत हुआ इन्तजार का
जन्म की बेला आ गयी
लगता अब नौ मास की कैद से
बरी होने की शुभ घडी आ गयी
भर लेगा मुझे हर कोई आगोश में !!
जन्म से पहले शायद हर एक जीव ऐसा सोचता होगा
कौन जाने किस योनि में जीवन उसको मिलता होगा
जन्मो जन्मो तक सबकी अात्मा को भटकना पड़ता है
कीट पतंगों से पशु पक्षी तक का जीवन जीना पड़ता है
किसको मिलता कैसा जीवन कहते सब फल कर्मो का
लाखो योनि गुजरे जब मिलता सुख मानव जीनव का
न कर व्यर्थ इस जीवन को ये मौका हर बार नहीं मिलता
ले गीता से कुछ ज्ञान जिसमे सच्चे सुख का मन्त्र मिलता
नरक और स्वर्ग का भेद यही है, यही सबकी करनी भरनी
गर्भ गृह तो सबका एक फिर जीवन भिन्न क्यों पाते है !
सुकर्म करो तो स्वर्ग यही, कुकर्मी नरक यही पे पाते है !!
समझ सको तो समझ लो मानव ऐसा “धर्म” कहते है !
जिसको खोजो मंदिर मस्जिद वो तेरे घट में रहते है !!
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डी. के. निवातियाँ _____________@@@
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