सरकारी बाबूजी दफ्तर के
कोने में डेरा जमाता है
मोटा पहनता है चश्मा
गाल में पान दबाता है
कभी फाइल मिली नहीं मेरी
कभी पर्ची मुझे पकड़ाता है
कभी कहता है कल आना
कभी बन्द का बोर्ड लगाता है
कभी हाफ डे ,कभी हड़ताल
कभी जाँच पड़ताल बताता है
कभी कहता है वक़्त नहीं है
कभी बड़ा साहब बुलाता है
टूट गयी है जूती मेरी
दफ्तर आने जाने में
जब पहुँचा मैं मंज़िल पर
बोला देर कर दी आने में
आज़कल ये फॉर्मेट चलता नहीं
हरएक को मौका मिलता नहीं
लिए दिए बिना बन्धु यहाँ पर
पत्ता तक हिलता नहीं
समेटकर ईमानदारी की पोटली
मै घर को अपने आ गया
भ्र्ष्टाचार का मकड़जाल
देश की जड़ों को खा गया
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