मेरी गाथा विचित्र
भिन्न -भिन्न रूप में
ढाला जाता हूँ !!
मै एक सिक्का हूँ
स्वर्ण से लेकर
चाँदी, तांबा, लोह
अयस्क और न जाने
कितने तरह से
बनाया जाता हूँ !!
मै एक सिक्का हूँ
फैसला हो हर जीत का
कही मातम हो या
मौका खुशियो का
मै तो बस हर जगह
उछाला जाता हूँ !!
मै एक सिक्का हूँ
मेरा कोई,
नियत स्थान नही
कभी तिजोरी में,
या फ़कीर की झोली में
पाया जाता हूँ
मै एक सिक्का हूँ
किसी ने फेका
नदी पोखर तालाब में
तो कभी चौखट में
दबाया जाता हूँ !!
मै एक सिक्का हूँ
हाथो की कठपुतली
जिसके हाथ लगा
उसने बहुत रगड़ा
पहचान खोने तक
चलाया जाता हूँ !!
मै एक सिक्का हूँ
एक पहेली बनकर
ये दुनिया मुझे चलती
या दुनिया मुझे चलाती है
ये बात आज तक नही
समझ पाया हु !!
मै एक सिक्का हूँ
जीवन का पर्याय
उपहास का पात्र
मुहावरो, कहावतो
में भी अकसर
पाया जाता हु !!
मै एक सिक्का हूँ
कितनी समानता
मुझे में और,
आम इंसान में
दुनिया में संग
चलता हूँ !!
मै एक सिक्का हूँ
ठीक उस मजदूर की तरह
जब तक अंतिम सांस
तन से निकल न जाए
निर्णतर कार्यरत
बस कर्मशील बने रहना !!
जैसे सिक्का पड़ा रहता
पत्थर की मूर्तियों के नीचे
मजदूर की जगह
मंदिर की सीढ़ियों के नीचे !!
जरुरत के वक़्त दोनों
पूजा के पात्र
तदोपरांत दोनों का कार्य
ठोकर खाना …..!!
शायद मै भी
उस सिक्के और मजदूर
की जीवन लीला में
हम तीनो बस जीते है
दुसरो के उत्थान
और स्ववय के पतन
के लिए……
हां !! शायद
यही हमारा कर्म
यही हमारा धर्म
अपनी जिंदगी
की ऐसे गाथा सुनाता हूँ !!
क्योकि मै एक सिक्का हूँ !!
मै एक सिक्का हूँ,,,,,, मै एक सिक्का हूँ !!
( डी. के. निवातियाँ )
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