उड़ गया वक़्त लगा के पर जाने किसके ,
कहा बहुत , मगर रह गया सबकुछ उसे बताने को .
मर्ज़ -ऐ -इश्क़ भला कब तलक छुपाते सबसे ,
नाम आया उसका , और खबर लग गयी ज़माने को .
उठाये फिरता है इबादतों का बोझ सर पर अपने ,
जगा रखा है खुदा को भी उसने , मन्नतें अपनी चंद मनाने को .
अरे सुन , रुक , ठहर , ज़लज़ले थोड़ा ,
अभी कहाँ निकला हूँ , मैं दुनिया कोई बसने को .
रहने दे भटकता कुछ देर और यूँही “अबाध ”
देखना मंजिलें खुद चली आएँगी , रास्ता तुझे दिखाने को .
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें