ज़िक्र होता है मेरा बारहा उसकी जुबां पर
हिचकियाँ बेसबब मुझे यूँ ही नहीं आती
वो जब सोती है तो भीग जाता है तकिये का कोना
सिसकियाँ बेसबब मुझे यूँ ही नहीं आती
अब तो हैं फासले मेरे हुज़ूर, हैरत में क्यों हो
हुस्न के चेहरे से अठखेलियां यूँ ही नहीं जाती
मैं तो ज़िंदा हूँ आज भी उसकी यादों की क़बर में
इश्क़ एहसास है दफ़नाने से भी मौत नहीं आती
वो जो कहती हैं की वो भूल गयी हैं मुझको
ऐसा होता तो बेहिसाब मेरे ख्वाबों में यूँ ही नहीं आती
आमने सामने बैठे हैं तो ख़ामोशी सी क्यों है
मुद्दतो बाद भी मुलाक़ात की ऐसी घड़ियाँ नहीं आती
मेरे सीने से लिपट कर कभी रोई थी तुम भी
मेरी साँसों से आंसुओं की नमी आज भी नहीं जाती
यूँ तो मैं भी तुझे गुनेहगार बता सकता था
आदत है पुरानी शराफत हमसे छोड़ी नहीं जाती
बेबाक था अंदाज़-ऐ-बयान उसका फासलों से पहले
मुसलसल ख़ामोशी उसके होटों से चाहे भी तो नहीं जाती
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