(1)
ग़ज़ल
सोचकर मुझको ये हैरानी बहुत है
दुश्मनी अपनों ने ही ठानी बहुत है
जानकर मैं अबतलक अनजान-सा हूँ
हाँ,उसी ने मुट्ठियाँ तानी बहुत है
दे गया है ग़म ज़माने भर का लेकिन
अब उसे क्योंकर पशेमानी बहुत है
चाहता है दिल से पर कहता नहीं क्यों
ये अदा जो भी हो लासानी बहुत है
दोस्ती का भी शिला मुझको मिला ये
ख़ाक़ मैंने उम्र भर छानी बहुत है
ज़िंदगी में फूल भी काँटे भी बेशक़
चंद ख़ुशियाँ तो परीशानी बहुत है
किसलिए ख़ुद पर गुमाँ कोई करेगा
जब यकीनन ज़िदगी फ़ानी बहुत है
रह सकूँ खामोश सबकुछ जानकर भी
गर मिले मुझको ये नादानी बहुत है
आ सके आँखों में गर दो बूँद पानी
ज़िंदगी के बस यही मानी बहुत है
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(2)
ग़ज़ल
बेमतलब आँखों के कोर भिगोना क्या
अपनी नाकामी का रोना-रोना क्या
बेहतर है कि समझें नब्ज़ ज़माने की
वक़्त गया फिर पछताने से होना क्या
भाईचारा-प्यार-मुहब्बत नहीं अगर
तब रिश्ते-नातों को लेकर ढ़ोना क्या
जिसने जान लिया की दुनिया फ़ानी है
उसे फूल या काटों भरा बिछौना क्या
क़ातिल को भी क़ातिल लोग नहीं कहते
ऐसे लोगों का भी होना-होना क्या
मज़हब ही जिसकी दरवेश फक़ीरी है
उसकी नज़रों में क्या मिट्टी-सोना क्या
जहाँ नहीं कोई अपना हमदर्द मिले
उस नगरी में रोकर आँखें खोना क्या
मुफ़लिस जिसे बनाकर छोड़ा गर्दिश ने
उस बेचारे का जगना भी सोना क्या
फिक्र जिसे लग जाती उसकी मत पूछो
उसको जंतर-मंतर-जादू-टोना क्या
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(3)
ग़ज़ल
नहीं कुछ भी बताना चाहता है
भला वह क्या छुपाना चाहता है
तिज़ारत की है जिसने आँसुओं की
वही ख़ुद मुस्कुराना चाहता है
किया है ख़ाक़ जिसने चमन को वो
मुक़म्मल आशियाना चाहता है
हथेली पर सजाकर एक क़तरा
समंदर वह बनाना चाहता है
ज़माना काश,हो उसके सरीखा
यही दिल से दीवाना चाहता है
ज़रा सी बात है बस रौशनी की
मगर वह घर जलाना चाहता है
ज़ुबाँ से कुछ न बोलूँ जुल्म सहकर
यही मुझसे ज़माना चाहता है
लगीं कहने यहाँ खामोशियाँ भी
ज़ुबाँ तक कुछ तो आना चाहता है
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