शुक्रवार, 1 मई 2015

कोई अपना

एक इन्शान खुद
वक़्त से कैसे टूटता है
गिरकर अर्श से
फर्श पर कैसे फूटता है

चालें चलता है मुकद्दर
मुखातिब सुख होता नहीं
कोई पीकर दर्दे जिगर
आँख से कभी रोता नहीं

मन बहलाता कुत्तों संग कोई
कहीं लख्तेजिगर होता नहीं
मर जाता फूथपाथ कोई
कोई भी उनपर रोता नहीं

पहचान की मारामारी ,उफ़
रात रातभर सोता नहीं
बड़े बड़े खाशमखाश यहाँ
पर कोई अपना होता नहीं

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