अचम्भित विकट बेजुवानो़ं का चेहरा
निडर है तू क्यों देखकर इनका पेहरा
क्या कमी थी तुझे एक सपना था सुन्दर
क्यों बनने चला इस सदी का सिकन्दर
व्यथित और कुपित कर दिये शख्स तूने
हुये क्षत -विक्षत धरातल के कोने
चढा शीर्ष पर कर पतन दूसरों का
किये जा रहा तू विखंडन धरा का
निराधार विकृत हुये तथ्य तेरे
प्रसारित हैं क्यों भ्रान्तियों के अंधेरे
हुये तीव्र घातक वो अज्ञान के स्वर
उड़ेगा तू कब तक लिये काठ के पर
किये गर्त तूने कदम हर कदम पे
रहेगा तू कब तक खड़ा अपनी दम पे
गिरेगा तू एक दिन इसी राज पथ से
बचेगा ना तू कोटि मुण्डों के हठ से
चुभोये धरा में गहन दंश जितने
नपुंसक बनेंगे तेरे वंश उतने
शनिवार, 9 मई 2015
चेतावनी
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