तन्हाई के लिए अँधेरे तलाशते रहे !
ख्वाबो में देखी तस्वीर को,
हकीकत में ढालने के लिए पत्थर तराशते रहे !!
ज़माना लूटता रहा,
खुशियो से आबरू – ऐ – इंसानियत !
अपनी शान बचाने में,
हम शर्म की चादर से खुद को ढापते रहे !!
बेईमानी की शरद रातो में,
वो दौलत की आग से हुए पसीना पसीना !
अपना हाल कुछ यूँ था,
ईमानदारी कीलौ में भी थर्र थर्र कापते रहे !!
लालच की लालसा में
ज़माना बेदर्द है कितना मालूम जब हुआ !
देखा रिश्तो का क़त्ल होते,
लोग अपनों को ही गाजर मूली सा काटते रहे !!
क्या करोगे जानकार “धर्म”
जमाने का दस्तूर बड़ा निराला होता हैं !
जिन्हे हक़ दिया अपना,
वो ही नश्तर चुभाकर, मरहम लगाते रहे !!
हम दिखावे के उजालो में,
तन्हाई के लिए अँधेरे तलाशते रहे !
ख्वाबो में देखी तस्वीर को,
हकीकत में ढालने के लिए पत्थर तराशते रहे !!
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डी. के. निवातियाँ __!!!
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