कई मजबूरीयाँ जब शाम को घर लौट आती है
समय के मध्य में विश्वास की लौ जगमगाती है
किसी कोने में बैठा छटपटाता दिल मचलता है
अंधेरी रात काली स्याही में जब ङूब जाती है
खुद ही की बात सुनकर जब खुद ही से खौफ लगता है
हर इक का ठेस करना जब, महज इक शौक लगता है
कहाँ जायें किसे बोलें…
कि हमको कुछ है कहना फिर
कहाँ जायें किसे पूछें…
क्या रितियाँ यूँ ही सताती है
ये सारी बीती बातें जब समझ से है परे लगती
नई इक सोच के फिर ख्वाब में वो साथ आती है
खुद ही में मर चुके इंसान को फिर साँस आती है
नया विश्वास लाती है,
वो जब भी पास आती है…!
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