”नीले नभ में परिंदों के संग”
नीले नभ में परिंदों के संग काश अगर मैं उड़ पाती
कर अचम्भित बादलों को उनसे ही मैं जुड़ जाती॥
1 -बरस पड़ती सावन के संग धरा को देने हरियाली
खुशियाँ भरती आँगन में छूते ही बनती छुई-मुई
प्रेम-प्रीत का रस बरसाने अनंत गगन को भरमाती
कर अचम्भित बादलों को उनसे ही मैं जुड़ जाती ॥
2 -स्याह व्योम संग झुक जाती शीतल हवा जब सहलाती
फूलों मुस्कान देख बागों में मुग्ध समा जाती
अनुपम सौंदर्य लिए मन में अनचिन्ह सपनों में खो जाती
कर अचम्भित बादलों को उनसे ही मैं जुड़ जाती ॥
3 -होगा क्या अस्तित्व मेरा पागल बादल ये क्या जाने
क्यों चाहूँ उड़ना नभ पर बेदर्द ज़माना क्या जाने
मन अभिलाषाएं मुझको मृगतृष्णा में भटकाती
कर अचम्भित बादलों को उनसे ही मैं जुड़ जाती॥
शकुंतला तरार
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