हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के
हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के
आँधी ने ये ख़्वाब भी रख डाला तोड़ के
आग़ाज़ क्यों किया था सफ़र उन ख़्वाबों का
पूछ े हो सब्ज़ ज़मीनों को छोड़ के
इक बूँद ज़हर के लिए फैला रहे हो हाथ
देखो कभी ख़ुद अपने बदन को निचोड़ के
कुछ भी नहीं जो ख़्वाब की तरह दिखाई दे
कोई नहीं जो हम को जगाए झिंझोड़ के
इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक़्त अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के
जाने क्या देखा था मैंने ख़्वाब में
जाने क्या देखा था मैंने ख़्वाब में
फँस गया फिर जिस्म के गिरदाब में
तेरा क्या तू तो बरस के खुल गया
मेरा सब कुछ बह गया सैलाब में
मेरी आँखों का भी हिस्सा है बहुत
तेरे इस चेहरे की आब-ओ-ताब में
तुझमें और मुझमें तअल्लुक़ है वही
है जो रिश्ता साज़ और मिज़राब में
मेरा वादा है कि सारी ज़िंदगी
तुझसे मैं मिलता रहूँगा ख़्वाब में
ज़िंदगी जैसी तवक्को थी नहीं, कुछ कम है
ज़िंदगी जैसी तवक्को थी नहीं, कुछ कम है
हर घडी होता है एहसास कहीं कुछ कम है
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक्शे के मुताबिक़ यह ज़मीन कुछ कम है
बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफी है, यकीन कुछ कम है
अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ ज़्यादा है, कहीं कुछ कम है
आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
यह अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है
Courtesy :अख़लाक़ मुहम्मद ख़ान
Read Complete Poem/Kavya Here dreams
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें