मगर जीना नही आया,,!
पी गया जहर, अमृत जानकर,
मगर पीने का ढंग नहीं आया..!!
जिंदगी का ये सफर
कुछ इस तरह से बिताया !
पाकर अपनों का प्यार
अपना बचपन था खिलखिलाया !!
कब बीत गया बचपन
अपनत्व की ममता के बीच भुलाया !
घर से निकला बहार,
तालीम की दुनिया में कदम बढ़ाया !!
भूला मुस्कुराने की अदा,
मुखड़े में अब एक कसाव आया !
हुआ दीदार नए चेहरों का
जिंदगी में अनुभव का मौका आया !!
कुछ को हुई घृणा मुझसे,
कुछ ने दोस्त बनकर मुझे अपनाया !!
पल-पल बढ़ते-बढ़ते यूँ ही,
आसमा छूने का ख्याल मन में आया !
तन भी खोया, मन भी खोया,
अब तो रातो को भी सोना न भाया !!
जूझ रहा था कश्मकश में जब
आयु किशोर से जवानी में कदम बढ़ाया !
देखे थे जो सपने,
अब उनको सच करने का वक़्त आया !!
इधर भो दौड़ा, उधर भी दौड़ा,
हर एक दिशा में अपना कदम बढ़ाया !
करना चाहा जो इस मन ने
हर और अड़चनों से घिरा हुआ पाया !!
जरुरत थी जब हमदर्दी की,
देकर उलटे सीधा ज्ञान भरमाया !
गैरो की बात क्या कीजे,
अपनों ने भी जी भर के हमे सताया !!
बेमानी थी ये दुनिया,
इस महफ़िल में कुछ न कर पाया !
देख हालत दुनिया की,
अब हमको खुद पे ही रोना आया !!
साहस बटोरकर जैसे ही,
हमने फिर से अपना अगला कदम बढ़ाया !
अनगिनत बंधनो की
जंजीरो के घेरे से स्वंय को जकड़ा पाया !!
भूल गया सब याद पुरानी,
इस जीवन में कुछ न कर पाया !
जिनकी खातिर खुद को भूला
सबसे पहले उन्होंने ही मुर्ख बताया !!
ऐसा उलझ जिंदगी से,
आज तक उसकी पहेली न सुलझ पाया !
कौन था, मै कौन हूँ,
ढूंढ रहा हूँ खुद को जिंदगी में न जान पाया !!
जी गया जिंदगी उमभर
मगर जीना नही आया,,!
पी गया जहर, अमृत जानकर,
मगर पीने का ढंग नहीं आया..!!
डी. के. निवातियाँ _________@@@
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