कच्हु मोर नही कच्हु तोर नही,
फिर काहे मनवा चोर भया…
सतरन्ग सजी बहुरन्ग बनी,
क्यु अपना अन्ग च्हिपाय गया…
कभी इधर गया कभी उधर गया,
शायद अपना पथ भूलि गया…
इक ढूड्त ढूड्त प्रेम गली,
कच्हु मिला नही खुद खोय गया….
(सन्जू)
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