अपनों से ही अब हो रहे हैं रोज़ दो दो हाथ
चुभती नहीं है कोई भी अब शूल जैसी बात
सह सह के ये सितम बदन पत्थर सा हो गया है
मेरा मोम जैसा दिल भी जाने कहाँ खो गया है
मुँह से भी अब बाहर नहीं आती है मीठी बात
लगता है कभी ना ख़त्म होगी ये दर्द भरी रात
सपनों ने भी आँखों में आना छोड़ दिया है
तूफानों ने मेरी नाव का रुख मोड़ दिया है
डूबूँगा या बचूंगा ये तो अब वक्त तय करेगा
किनारे पे जो खड़े है भला उन्हें क्या पता चलेगा.
शिशिर “मधुकर”
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