उस पार उतरने की जल्दी में हम अपनों को ही भूल गए
जिस राह में उंगली पकड़ी थी उस राह पर उनको छोड़ गए
वो देख किनारा स्वपन सलोना हठ को फिर मज़बूर किया
लहरो की मौजो में तुमने खुद को नशे में चूर किया
उस साँझ मैं ढलती आशाओ को एक पल में झकझोर दिया
उन बूढी आँखों की परतों को तुमने आज निचोड़ दिया
वो रात अँधेरी थी वर्षा ऋतू कम्पन जब तुम करते थे
वो बैठ किनारे खटिया के तन शाल लपेटा करते थे
उसी किनारे तुमने आज उनकी चिता जलायी है
वो आग देखकर तुमको इक फिर कपकपी सी आयी है
………….फिर कपकपी से आयी है ……………….
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