ढ़लते सूरज की सही , रोशनी तो मैं भी हूँ
एक बेवफा की ही सही, चाहत तो मैं भी हूँ
तुम न मानो तो क्या, एक दिन मानेगा जहाँ
गिला होता है जिसे , आदमी तो मैं भी हूँ
ख़ुशी से ना सही , गम से तो अपना नाता है
कैसे सहना है इसे, वक्त सब सिखाता है
माना जमीं से दूर, हम निकल आए
तुम हो ऊंचाई अगर, गहराई तो मैं भी हूँ.
शिशिर “मधुकर”
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