तुझे समझना बहुत मुश्किल है
तेरे खेल भी निराले हैं
बंधनों से खुल रहे थे जो पैर
तूने फिर से बंधनों में डाले हैं.
विधि में क्या है सिर्फ तू जानता है
मुझको जो है करना वो पहचानता है
इसलिए मुझे तो सब स्वीकार है
मैं तो ये मानूं मुझ पर तेरा उपकार है.
बस एक विनती तुझसे करता हूँ सदा
तू एक पल भी मुझसे होना ना जुदा
गर इस सफर में तू न मेरे पास होगा
जीवन की हर सच्चाई का कैसे मुझे एहसास होगा.
शिशिर “मधुकर”
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