- कण कण में है जो बसा
घट-घट में वो समाहित
फिर क्यों उसे खोजने चला
मुर्ख इंसान होकर लालायितअग्नि के तेज़ में, वायु प्रबल के प्रवेग में !
चलता फिरत संग -संग वो वक़्त के फेर में !!नित्य आता रवि रूप में
मिलने किरण बिखराता
इस छोर से, उस छोर तक
सर्वत्र निराली छटा दिखाताप्रभात के वेश में, और संध्या के भेष में !
समा जाता नित्य ही समुन्द्र काल घेर में !!थक जाए पथिक डगर में
बन वृक्ष छाया सुख प्रदान करे
प्यास से त्रस्त हो धरा जब
बन बदरी वर्षा से निदान करेभिन्न -भिन्न रूप में, प्रत्येक परिवेश में !
चलता फिरत संग -संग वो वक़्त के फेर में !!धरा रूप में, अकाशा स्वरुप में
कही जल प्रपात में हुआ प्रवाहित
रोम – रोम में आभास जिसका
मूर्त-अमूर्त सर्वत्र हो आह्लादितसंध्या मे, निशा में, चन्द्र तारो के भेष में
चलता फिरत संग -संग वो वक़्त के फेर में !!वृक्ष में, लता में, कन्द, में मूल में,
पौधों में, पुष्प में, फल में फूल में
इस सृष्टि के प्रत्येक अलंकार में
जो बसा तेरे घट,क्यों खोजे संसार मेंसुख में भी वो दुःख में भी, प्यार में द्वेष में !
चलता फिरत संग -संग वो वक़्त के फेर में !!!
!
![[________डी. के. निवातियाँ _______]]
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