पकवान
लड्डू पेडे से दिन होते
रसगुल्लों-सी रातें
चंदा सूरज से हम करते
दिल की सारी बातें
गर जलेबी पेड़ पर होती
हलुआ उगाती घाँस
हम भी उनकी सेवा करते
जब तलक चलती साँस
गर चमचम की बारिश होती
कभी न खुलता छाता
चाहे जितना काला बादल
रस बरसाने आता
खीर अगर नदिया में बहती
हम रोज नहाने जाते
पत्थर सब बर्फी होते तो
कुतर कुतर कर खाते
मम्मी कहती खाना खा लो
हम क्यूँ रोटी खाते
दूध भरा गिलास छोड़ कर
बाहर भागे जाते।
—- भूपेन्द्र कुमार दवे
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