क्या तुम्हे पता है?
मै आज भी वैसी ही हूँ?
तुम्हे याद है?
मेरा होना ही तुम्हारे मन मे पुलकन सी,
भर जाया करता था।
मेरे ना होने पर,
तुम कितने बेकल हो जाया करते थे।
अकेलेपन का तंज,
तुम्हारी आवाज में छलका करता था।
आओ!हाथ बढ़ा कर छू लो मुझे,
मैं आज भी वैसे ही चलती हूँ।
कभी-कभी लगता है,
मैं तुम्हारे लिये कोहरे की चादर सा,
एक अहसास हूँ
आशीषों की चादर सी,कछुए के कवच सी,
रोशनी की चमक सी,धरा की धनक सी
तुम्हारे दुख मे,तुम्हारे सुख में,
तुम्हारे साथ जीती,
तुम्हारी एक परछाईं हूँ।
-मीना भारद्वाज
Read Complete Poem/Kavya Here "हवा"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें