वो सुबह का अखबार पढ़ के रो रहा था
कातिल था, अपने गुनाह पढ़ के रो रहा था।
वो कह न सका पाँव के काँटे निकाल दो
उस गूँगे के हाथ कटे थे, रो रहा था।
फुटपाथ पड़ी लाश में माँ ऊँघ रही थी
उसका बच्चा पास लेटे, रो रहा था।
जमाना चाह रहा था कि मैं भी रो पडूँ
इसलिये मेरी हर खुशी पे, रो रहा था।
दर्द अब उस अश्क का देखा नहीं जाता
जो मुस्कराहट में लुक-छिप के, रो रहा था।
पढ़ के गजल वो इतना तो समझा होगा
ये दिल किसका आँसू लिये, रो रहा था।
हँस रहे थे लोग देख उस तमाशे को
वो अपनी ही लाश में छिपे, रो रहा था।
—- भूपेन्द्र कुमार दवे
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